Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Shreekrishnamal Lodha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 21
________________ जिनवाणी-- जैनागम-साहित्य विशेषाङक समाधान हो जाता है। वह शान्ति और समाधि प्राप्त करता है। मोक्ष की अभिलाषा पूर्ण हो सकती है और जन्म-मरण अर्थात् संसार से सदा के लिए मुक्त हो सकता है। इस अध्ययन का प्रारम्भ संवेग की अभिलाषा से हुआ है और अन्त मोक्ष प्राप्ति में । सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयई । । 29.8 । । सामायिक की साधना करने से पापकारी प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता खभावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ | | 29.17 ।। क्षमापना से साधक की आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है। सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्म खवेश ।। 29.18 ।। स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है। वेयावच्चेणं तित्थयर नाम गोत्तयं कम्मं निबन्धइ | | 29.43 वैयावृत्य से आत्मा तीर्थकर नाम कर्म की उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति का उपार्जन करता है। वयगुत्तयाए णं णिव्विकारतं जणयइ । । 29.54 11 वचन गुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है। कोहविजएणं खतिं जणयइ । 29.67 ।। क्रोध को जीत लेने से क्षमा भाव जाग्रत होता है। माणविजएणं मद्दवं जणयइ | | 29.68 ।। अभिमान को जीत लेने से मृदुता जाग्रत होती है। मायाविजएणं अज्जवं जणयइ । | 29.69 ।। I माया को जीत लेने से सरल भाव की प्राप्ति होती है। लोभविजएणं संतोसं जणयइ ।।29.7011 लोभ को जीत लेने से संतोष की प्राप्ति होती है। यह स्पष्ट है कि सम्यक्त्व पराक्रम अध्ययन में दिए गए प्रश्नोत्तर साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। 3. तपोमार्ग (तवमग्गं- तीसवाँ अध्ययन) यह अध्ययन तपश्चर्या के स्वरूप और विधि के संबंध में है । इसमें राग-द्वेष से उत्पन्न पाप कर्मों को क्षय करने में अमोघ साधन 'तप' की सम्यक् पद्धति का निरूपण किया गया है। सांसारिक प्राणियों का शरीर के साथ अत्यन्त घनिष्ठ संबंध हो गया है। उसी के कारण अज्ञानवश नाना पाप कर्मों का बंध होता है। विश्व के सारे प्राणी आधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक दुःखों से पीड़ित हैं और इन त्रिविध दुःखों से सन्तप्त हैं । समस्त अज्ञ जीव आधि-व्याधि-उपाधि से पीड़ित है। इस पीड़ा को दूर करने के लिए तप को साधन बताया गया है। तप कर्मों की निर्जरा करने, आत्मा और शरीर के तादात्म्य को तोड़कर आत्मा को शरीर से पृथक मानने की दृष्टि उत्पन्न करता है। सम्यक् तप का मार्ग स्वेच्छा से उत्साहपूर्वक शरीर, इन्द्रियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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