Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Shreekrishnamal Lodha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ | उत्तराध्ययन सूत्र 329 मुनि ने १९ महान् आत्माओं का उल्लेख किया जो सभी शूरवीर थे-कर्म के क्षेत्र में भी और धर्म के क्षेत्र में भी चक्रवर्ती सम्राट् अथवा विशाल समृद्धि के स्वामी राजाओं ने कर्मक्षेत्र में वीरतापूर्वक साधना करते हुए मुक्ति प्राप्त की। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि? | |18.11।। जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है, फिर क्यों हिंसा में आसक्त होते हो? किरिअं च रोयए धीरो।।1B.33 ।। धीर पुरुष सदा क्रिया (कर्नव्य) में ही रुचि रखते हैं। 8. श्रमण जीवन की कठोर चर्या (मियापुत्तीय-उन्नीसवाँ अध्ययन) . इस अध्ययन में मृगापुत्र का परम वैराग्योत्पादक इतिहास, माता-पुत्र का असरकारक संवाद और साधुता का सुन्दर रूप बताया गया है। इस अध्ययन का प्रारम् मुनिदर्शन से होता है और अन्न श्रमण धर्म के पालन और मोक्ष प्राप्ति में। मृगापुत्र को जानिस्मरण ज्ञान मुनि दर्शन से होता है। संसार में उसे टुःख ही दु:ख नजर आता है और उसके हृदय में वैराग्य भर जाता है। वह माता-पिता से अनुमति मांगता है और कहता है ___ जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जन्तवो | 120.16 ।। संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है। जिधर देखो उधर दुःख ही दुःख है, जिससे वहां प्राणी लगातार निरन्तर कष्ट ही पाते रहते हैं। मृगापुत्र नरकों के कष्ट का वर्णन करता है। श्रमण चर्या बहुत कठोर है! अनेक प्रकार के परीषह है। श्रमण को जीवन भर पाँचों व्रतों का पालन करना पड़ता है। शीत-उष्ण परीषह सहन करना पड़ता है और नंगे पैरों, कंकरीले. कांटों भरे रास्ते पर चलना पड़ता है। उसको भोजन आदि के लिए भिक्षाचरी करनी पड़ती है। व्याधि होने पर मृगापुत्र कहते हैं कि मैं मृगचर्या करूंगा। जिस प्रकार मृग बीमार होने पर बिना औषधि के ही नीरोग हो जाता है उसी प्रकार मुझे भी औषधि की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। श्रमण का प्रधान गुण उपशम है- “उवसमसारं खु सामण्ण' । मुनि के संबंध में कहा है लाभालामे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निन्दा-पसंसासु. तहा माणावमाणओ।।19.91 1। जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान - अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुत: मुनि है। 9. आत्मा ही आत्मा का नाथ (महानियंठिज्ज-बीसवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में नाथ-अनाथ की व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टि से की गई है। बहुत से मनुष्यों की यह धारणा है कि धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, सत्ता आदि से व्यक्ति सनाथ होता है। ऐसा भ्रम मगधनरेश राजा श्रेणिक को भी था, परन्तु जब अनाथी पनि ने नाव --अनाथ का वास्तविक अर्थ समझगया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27