Book Title: Upkesh Vansh Author(s): Unknown Publisher: Ratnaprabhakar GyanpushapmalaPage 10
________________ उपकेश वंश दोहा-उत्कंठा अतिही बढ़ी। सके न धीरज' धार । उसीरोज़ महि खोद के । मूर्ति लई निकार ॥१॥ (तर्ज-तेरा मौला मदीने बुलाले तुझे ) परतिष्टा सूरी से तत्काल हुई ॥ टेर॥ देह दो कर एक दिन में । कोरटा अरु श्रोशियों ॥ दोनों जगह में एक ली। स्थापित हुई हैं मूर्तियों ॥ जग में इस कारण ख्याति भई ॥ प० १॥ दिन-ब-दिन उपकेशपुर की। उन्नति होती रही। धन धान्य विद्या धर्म से थी। पूर्ण जग में हो रही॥ ____ जहाँ तहाँ पै इन की है बढ़ती हुई ॥ प० २॥ शोभा अति सुन्दर बनी । मुख से कही ना जायजी॥ जैसे जन वहाँ पर रहे थे। भोग वैसा पायजी॥ _____ सब जैनों की जाहोज़लाली रही । प० ३॥ बहुत' वर्षों तक वहाँ हालत सदा वैसी रही। मिथ्यात्व सब ही छूट कर वहाँ जैनों की बस्ती रही। पूरण मन्दिर जी की संभाल रही। प० ४॥ नगर में लाये पर कुछ जल्दी करने से मूर्ति के हृदय पर दो गाँठे रह गई। मार्गशीर्ष शुक्रा ५ को प्रोशियों व कोरटा में सूरीजी ने वैक्रय से दो रूप बना कर एक साथ प्रतिष्ठा कराई । वे दोनों मूर्तियाँ भाज भी विद्यमान हैं। १ मत प्रतिष्ठा से ३०३ वर्ष तक तो उपकेशपुर की बहुत बढ़ती रही। यह वर्णन बाद का है।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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