Book Title: Tulsi Prajna 1996 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ स्वयं मार्कण्डेय भाषा, विभाषा, अपभ्रंश, पैशाची के १६ भेदों का परिचय देते हैं और महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्य, आवन्ती और मागधी-पांच भाषाएं मानते हैं तथा शौरसेनी को महाराष्ट्री और संस्कृत की अनुगामी कहते हैं। ऐसी स्थिति में उपर्युक्त उद्घोषणा का कतिपय निदर्शन युक्ति संगत नहीं लगता। २. भाषा-शास्त्रियों ने प्राकृत भाषाओं में लेखन को भगवान् महावीर एवं बुद्ध के समय से शुरू माना है । भगवान् बुद्ध के वचन को उनके निर्वाण बाद २५० वर्षों के भीतर ही लिपिबद्ध कर लिया गया और सम्राट अशोक ने भी अपनी धम्मलिपियों (शिलालेखों) के माध्यम से बहुत कुछ संग्रह कर दिया। भगवान् महावीर की वाणी, इस दृष्टि से कुछ अंतराल में लिपिबद्ध हुई । साधारणतया उसे महावीर-निर्वाण बाद ९८० वर्ष बीतने पर लिपिबद्ध किए जाने की सूचना है और शिलालेख आदि पर भी उसका संरक्षण प्रायः नहीं मिलता। एतद् विषयक एक अध्ययन का सारांश इसी अंक में प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग शीर्षक से अनुमुद्रित है। ३. जैसे किसी देश अथवा समाज में शुद्ध प्रजा जैसा कुछ भी नहीं होता; वैसे ही शुद्ध भाषा जैसा भी कुछ नहीं हो सकता। भाषा का विकास समाज में ही होता है। चंद व्यक्ति, कुछ लोगों के लिए कुछ लिखें तो उस लेखन की भाषा भी कुंठित हो जाती है। वस्तुतः भाषा को नियमों में जकड़ कर रखना बहुत कठिन है क्योंकि भाषा की ध्वनियां निरन्तर बदलती रहती हैं। बुद्ध और महावीर की भाषा का उद्गम एक है और उनकी भाषा में बहुत अधिक समानता भी रही होगी किन्तु पालि और अर्द्धमागधी में बहुत फर्क हो गया। मूल एक जैसा होने पर भी दोनों के विकास की परिस्थिति अलग-अलग थी। उनमें समता-विषमता के लिए दो नमूने देखिएधम्मपद (७०) उत्तराध्ययनसूत्र (९.४४) मासे मासे कुसग्गेन मासे मासे तु जो बालो __ बालो भुजेत्थ भोजनं । कुसग्गेण तु भुंजए । न सो संखत धम्मानं न सो सुक्खाव धमस्स ___ कलं अग्धति सोलसि ।। कलं अग्घइ सोलकिं ॥ थेरगाथा (७८६) उत्तराध्ययनसूत्र (४.३) चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो तेने जहा सन्धिमुहे गहीए सकम्मुन हज्जति पापधम्मो । सकम्मुना किच्चइ पावकारी। एवं पजा पेच्चा परम्हि लोके एवं पया पेच्चा इहं च लोए सकम्मुना हज्जति पापधम्मो ॥ कंडाण कम्माण मोक्ख अत्थि ॥ ऐसे अनेकों संदर्भ मिल सकते हैं। श्वेताम्बर-दिगम्बर जैनागमों में भी शोध करने पर ऐसे समता-विषमता वाले संदर्भ-स्थल मिल जायेंगे। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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