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पूर्वात् पूर्वा सहस्रस्य सूक्तानामेक भूयसाम् । जातवेदस इत्याचं कश्यपार्षस्य सुश्रुमः ।। इति स यो वषीयान्ता वेदमह यास्त्वखिल सूक्तगाः ।
ऋचस्तु पंच लक्षाः स्युः सैकोनशतपंचकम् ॥" कि ये (हजार सूक्त) खिल सूक्त हैं। उनके आदि में एक ऋक् वाला सूक्त है। शौनक ने स्वयं ऋष्यनुक्रमणी में यह कहा है-एक-एक ऋक् वढ़ने वाले एक हजार सूक्तों के पूर्व से पूर्व जातवेदस ऋक् कश्यप के आर्ष का प्रथम सूक्त है-ऐसा सुनते हैं। वेद के मध्य में अखिल सूक्तों में स्थित स यो वृषा (ऋक् १११००) तक पांच लाख चार , सौ निन्यानवे ऋचाएं हैं।
इस प्रकार ऋग्वेद-संहिता दो प्रकार से बनी हैं। एक अष्टक और अध्याय-वर्गों में विभक्त है जिसका परिमाण १२००० बृहती छन्द अथवा ४,३२००० अक्षरों वाला है। दूसरी संहिता, दाशतायी संहिता अथवा दश मंडल और अनुवाक-सूक्तों में विभक्त है जो शाकल ऋषि एवं उनके शिष्यों द्वारा संग्रहीत है । इसमें १०५८० ऋचाएं और एक पाद है किन्तु शाकल की मूल संहिता में बाल खिल्य व्यतिरिक्त १.५२२ ऋचाएं ही हैं।
दोनों ही प्रकार की संहिताओं में ऋचाओं का संग्रह कम अधिक हुआ है । ऐसा लगता है । दाशतायी-संहिता में द्विपदा छन्दों की संख्या १७ में, ७० चतुष्पदा छन्दों को द्विगुणित करके जोड़ने से, अथवा कम अधिक जोड़ने से, ऋचाओं की संख्या घट बढ़ गई है। 'चरण व्यूह' के टीकाकार महिदास ने इस विषय को विस्पष्ट किया है और नैमित्तिक १४० द्विपदाओं की पहचान भी दी है। अध्ययन-काल में तो ये चतुष्पदा रहती हैं किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में द्विपदा शंसति-आदि वाक्यों से इन्हें यज्ञ में द्विपदा बनाकर विनियुक्त किया जाता है।
कालांतर में इन द्विपदाओं के कारण मंत्र-संख्या में अस्पष्टता होने से ही निम्न व्यवस्था दी हुई प्राप्त होती है ---
यद्यप्यर्थी नित्यो या त्वसौ वर्णानुपूर्वी सा नित्या । तदभेदाच्चैतद् भवति काठक, कालापकं पैप्पलादकमिति ॥
अर्थात् छन्दों-शाखाओं में वर्णानुपूर्वी के भेद होने पर भी अर्थ नित्य है-एक है; उसमें भेद नहीं है। केवल वर्णानुपूर्वी का भेद होने से उसमें भेद नहीं होता। वायु पुराणकार ने भी इस विषय में लिखा है ---
सर्वास्ता हि चतुष्पादा सर्वाश्चार्थकवाचिका। पाठान्तरे पृथक् भूता वेदशाखा यथा तथा ॥
प्राजापत्या श्रुतिनित्या तद्विकल्पास्त्विमे स्मृताः ॥
कि इस चतुष्पाद को प्रवचन भेद से अनेक संहिताओं में पाठांतर से लिखा
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तुलसी प्रज्ञा
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