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विवरण आचार्य शौनक ने दिया है
'जातवेदस्य सूक्त सहस्रमेकमैन्द्रात् पूर्व काश्यपार्ष वदन्ति । जातवेदसे सूक्तमाद्यं तु तेषामेक
भूयस्त्वं मन्यसे शाकपूणिः' -(बृहद्देवता, ३.१३०) कि ऐन्द्र सूक्त (ऋक् १११००) से पूर्व जातवेदस् देवता वाले एक हजार सूक्तों को कश्यप-आर्षे कहते हैं । इन सूक्तों का प्रथम सूक्त जातवेद से (ऋक् ११९९) है । शाकपूणि का मत है कि इनमें एक-एक ऋक् की वृद्धि होती है । आचार्य शौनक ने ही इस संबंध में एक श्लोक उद्धृत किया है--
"द्धचाद्या सहस्रर्चान्तं सूक्त नानाविधं भवेत् ।' नवनवति : पंचलक्षाः ऋचः स्युः स चतुशतम् ॥
नाना देवतमेकांर्ष छन्दोभिश्चित्तमृत्पत्थम् ॥" जिसका भाव यह है कि दूसरी ऋचा से एक हजार ऋचाओं तक नाना प्रकार के सूक्त हैं। पांच लाख चार सौ निन्यानवे ऋचाए हैं जो विभिन्न देवता वाले, एक ऋषि द्वारा दृष्ट छंदों से विचित्र तथा उत्थ (उत्पन्न) हैं।
इस संबन्ध में कात्यायन ने भी सर्वानुक्रमणी में कहा है'जातवेदस एका जातवेदस्यमेतदादीन्येक
भूयांसि सूक्त सहस्रमेतत् कश्यपार्षम्' ---कि जातवेदसे सूक्त में एक ऋक् है। जातवेदस् देवता है। इसको आदि में लेकर एक-एक अधिक बढ़ाते हुए एक हजार सूक्त हैं। यह कश्यप का आर्ष
विक्रम की सातवीं सदी में हुए स्कन्द स्वामी ने इस सूक्त के भाष्य में लिखा
____ “अत : परं कश्यपार्षम् । उत्सृष्टाध्ययनम् । एकाधिकं सूक्त सहस्रम् । तस्यैतदेकर्षम् । आद्यं सूक्तम् । एवं हि भगवान् शौनक आह-पूर्वा-पूर्वा सहस्रस्य सूक्तानामेक भूयसाम् । जातवेदस इत्याद्यं कश्यपार्षस्य सुश्रुम इति । अस्यकाधिकानां सहस्रस्य कश्यपार्षस्य सर्व सूक्तेषु पूर्वा पूर्वेषा ऋक् जातवेदस इत्याद्यम् । एकर्चम् इत्येतद् वयमपि श्रुतवन्त एव नाधीतवन्त इत्यर्थः ।"
कि इस सूक्त (सूक्त ९८) से परे कश्यप आर्ष है जिसका अध्ययन उच्छिन्न हो चुका है, एक अधिक हजार सूक्त हैं । उसका यह एक ऋक् वाला आदि सूक्त है । इसी प्रकार भगवान् शौनक ने कहा है-'पूर्वा-सुश्रुम ।' कश्यप के जिस एक हजार सूक्तों के
आर्ष एक-एक बढ़ने वाले सब सूक्तों में पहला यह ऋक् जातवेदस है। यह , आदि सूक्त एक ऋक् वाला है । हमने भी सुना है, अध्ययन नहीं किया, यह अभिप्राय
षड्गुरुशिष्य ने स्कन्द स्वामी के इस भाष्य को खोलते हुए निम्न स्पष्टीकरण दिया है
"खिल सूक्तानि चैतानि त्वाद्यैकर्चमधीमहे । शौनकेन स्वयं चोक्तमृष्यनुक्रमणेत्विदम् ।।
खण्ड २०, अंक ४
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