Book Title: Tulsi Prajna 1993 02
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि कुल ११६ पाठ भेदों में केवल १ 'आउसंतेण ' को छोड़कर शेष ११५ पाठ भेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता । और उसंतेण (कहीं अनुस्वार सहित है कहीं रहित) इस पाठ को सबने विकल्प में स्वीकार किया ही है और चूर्णिकार, वृत्तिकार आदि ने इसकी व्याख्या की ही है । तो फिर इस पाण्डित्य प्रदर्शन का लाभ क्या ? पहाड़ खोजने पर चूहा भी नहीं निकला ऐसा कहा जा सकता है । डॉ० के इस प्रयत्न को, जैनागमों के संशोधन व संपादन प्रक्रिया को नयी दिशा का बोध देने वाला बताया गया है। नवीनता का शौक सबको - बूढ़ों को भी होता है, लेकिन कृपा कर आगमों को इस मानसिक चंचलता का शिकार न होने दें । आगमों का संशोधन या संपादन के बहाने पुनर्लेखन जैसी वस्तु हर प्रकार से अक्षम्य हैमनमानी का पथ प्रशस्त करने वाली सिद्ध हो सकती है । हमारे आगम पुराने हैं और उनके लिए पुरानी दृष्टि ही अधिक उपयुक्त है क्योंकि वह आगम युग के समीपस्थ है । लाख-लाख धर्मानुयायी इन पाठों को पवित्र मंत्र समझते हैं, श्रद्धापूर्वक कंठस्थ व नित्य पारायण करते हैं । भाषा विज्ञान के चौखटे में फिट करने के लिये प्राचीन आदर्शों में उपलब्ध एवं सदियों से प्रचलित पाठों में कांट-छांट करने से सामान्यजन की आस्था हिलती है, उनमें बुद्धिभेद पनपता है और उनकी भावनाओं को ठेस भी पहुंचती है । अतः आत्मनिरीक्षण करें कि जो कार्य आप श्रुत सेवा व निर्जरा का कारण समझकर कर रहे हैं वह कहीं आश्रव व कर्मों का बन्धन तो नहीं है। याद रखें कि गलत ग्रंथ ग्रन्थकार की अपकीर्ति को चिरस्थायी कर देता है । और अंत में होगा यह कि गुड़गांव व राजकोट ( अहमदाबाद) से छपे आगमों की तरह आपका संस्करण भी बहिष्कृत कर दिया जाएगा । हमारा मन्तव्य यह नहीं है कि प्रतिलिपि करने में भूलचूक अस्वाभाविक है, लेकिन आदर्शों का मिलान कर सर्वसम्मति से उनका परिष्करण बिलकुल संभव है - आदर्शों से हटने की कतई आवश्यकता नहीं है । भूलों का परिमार्जन तो हिसाब, कानून आदि में सर्वत्र होता ही है क्योंकि वस्तुतः भूल अस्तित्वहीन है, नहीं (Nullity ) गिनी जाती है । किन्तु जहां, भूल हुई हो ऐसा कहा नहीं जा सकता, वहां भूल सुधार की ओट लेकर आगमपाठों में घुसपैस करना अनुचित है । भादर्शविहीन इस भाषाविज्ञान की दृष्टि से आगम-संशोधन का विरोध होना चाहिए । O प्रस्तुत आलेख में 'मूल' की सुरक्षा और तर्क संगत परंपरा - निर्वहन की ओर पाठकों और विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया गया है । आगमों से संबंधित प्रश्न होने से इसे मनोयोग पूर्वक देखा-समझा जाना चाहिए। तथाकथित "भाषाविज्ञान" की वर्तमान मुहिम हमारी दृष्टि में भी भ्रामक अधिक हो सकती है । - प. सो. खंड १८, अंक ४ २८९

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