Book Title: Tulsi Prajna 1993 02
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 71
________________ एक मृत हाथी की कथा से स्यादवाद के जैसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। पाश्चात्य दार्शनिकों में एम्पीडोक्लीज, एटोमिस्ट्स और अनैक्सागोरस आदि दार्शनिकों ने इलियटिक्स के नित्यत्ववाद और हैरेक्लिटस के क्षणिकवाद को समन्वित किया है। उनके अनुसार पदार्थ अपनी नित्यदशा में रहते हुए भी अपेक्षानुसार परिवर्तन को प्राप्त होते रहते हैं ।" 'डाइलॉग्स ऑफ प्लेटो' मेंप्लेटो इसी प्रकार का विचार प्रकट करता है "When we speak of not being, we speak, I supposed not of something opposed to being but only different आधुनिक विचारकों में हेगेल संसार मूल में विरुद्धधर्मात्मकता को स्वीकार करता है ।" ब्रडले ने कहा है कि प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तुओं से तुलना किए जाने पर आवश्यक और अनावश्यक दोनों सिद्ध होती हैं । " संसार के अनेक मनोवैज्ञानिकों ने भी स्याद्वाद के समतुल्य विचार व्यक्त किए हैं । प्रसिद्ध मानवशास्त्री विलियम जेम्स ने लिखा है कि 'हमारी अनेक दुनिया हैं । साधारण मनुष्य इन सब दुनियाओं का एक दूसरे से असम्बद्ध तथा अनपेक्षित रूप से ज्ञान करता है । पूर्ण तत्त्व वेत्ता वही है जो सम्पूर्ण दुनिया को एक दूसरे से सम्बद्ध और अपेक्षित रूप में जानता है । एक अन्य पश्चात्य विचारक का मत है : - यह पूर्णतया मूर्खता का द्योतक है कि अमुक गति तीव्र है या धीमी । सत्य के नजदीक वही पहुंच सकता है जो प्रत्येक गति को तीव्र और धीमी स्वीकार करें । २० १९ It would be nonsense to say that every movement is either swift or slow. It would be nearer the truth to say that every movement is both swift and slow. इस प्रकार उपरोक्त विचारों से स्पष्ट होता है कि जैनेतर पाश्चात्य और पौर्वात्य दोनों मनीषियों ने वस्तु की विरुद्ध धर्मात्मकता को स्वीकार किया है और यही स्याद्वाद मूल है। स्याद्वाद का समन्वय दर्शन स्याद्वाद एक ऐसा सिद्धान्त है जहां समस्त विरोधी विचार परस्पर सापेक्ष हो जाते हैं । जैनाचार्यों का कथन है कि सम्पूर्ण दर्शन स्याद्वाद में अन्तनिविष्ट हो जाते हैं । जिनमति स्तुति में कहा गया है। :-― बौद्धानाम् ऋजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात् । सांख्यानां तत एव नंगमनयात् योगश्च वैशेषिकः ॥ शब्द ब्रह्म विदोऽपि शब्दनयतः सर्वे नयैर्गुम्फिताम् । जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षभुवीक्ष्यते ॥ ૨૧ 7 अर्थात् ऋजुनय की अपेक्षा बौद्ध संग्रहनय की दृष्टि से वेदान्त, नैगमनय के अनुसार न्याय-वैशेषिक, शब्दनय की अपेक्षा शब्द ब्रह्मवादी तथा व्यवहारनय की अपेक्षा से चार्वाकादि दर्शनों को सत्य कहा जाता है होते हुए भी नयों की दृष्टि में समुचित रूप से । इस प्रकार समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध सम्यक्त्व रूप कहे गए हैं। इसलिए जैन खंड १८, अंक ४ ३३३

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