Book Title: Tulsi Prajna 1993 02
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ स्याद्वाद : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समणो स्थितप्रज्ञा भारतीय मनीषा ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर की सहजात प्रतिभा से निसृत मधुमय-आनन्द-धाम का नाम है--स्याद्वाद। जहां दो विपरीत दिशाओं में बहने वाली एवं परस्पर विरुद्ध विचारधाराएं आकर परम विश्रान्ति को प्राप्त करती हैं । आधुनिक समन्वयवाद का प्राचीन निदर्शन स्याद्वाद है । _ स्याद्वाद दो शब्दों के मेल से बना है :--स्यात् और वाद । स्यात् शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। स्यात् शब्द दो हैं । एक क्रियावाचक एवं दूसरा अनेकान्तवाचक । स्याद्वाद का स्यात् शब्द 'सर्वथा नियम को छोड़कर सर्वत्र अर्थ की प्ररूपणा करने वाला है, क्योंकि वह प्रमाण का अनुसरण करता है ।' श्लोक वार्तिक के अनुसार : 'स्यादिति निपातोऽयमनेकान्तविधि विचारादिषु बहुष्वर्थेषु वर्तते । २ अर्थात् स्यात् तिङन्त प्रतिरूपक निपात, अनेकान्त विधि, विचार और विद्या आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। श्री देवसेनाचार्य ने 'जो नियम को निषेध करने वाला है, निपात से जिसकी सिद्धि होती है जो सापेक्षता की सिद्धि करता है उसे स्यात् शब्द कहा है। सर्वथा रूप से सत् ही है, असत् ही है-इत्यादि विचारों का त्यागी और यथादृष्ट को–'जिस प्रकार वस्तु प्रमाण-प्रतिपन्न है उसको अपेक्षा में रखने वाला 'स्यात्' शब्द कहा गया है । सप्तभंगी-तरंगिनी में कहा गया है कि 'यद्यपि अनेकान्त, विधि, विचार आदि अनेक अर्थ स्यात् के होते हैं लेकिन प्रस्तुत प्रसंग में अनेकान्त अर्थ ही ग्राह्य है। _ 'उत्पाद्येत, उत्पाद्यते येनासौ वादः' अर्थात् जिसके द्वारा प्रतिपादन किया जाए वह वाद है । वदना, वाद करना, जल्प करना, कहना, प्रतिपादन करना आदि वाद शब्द के अर्थ हैं-वदनं वादो जल्पःकथनं प्रतिपादनमिति । इस प्रकार अनेकान्त रूप से कथन करना स्याद्वाद है । कथंचित् विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से प्रतिपादन करना स्याद्वाद का अभिधेय है। विभिन्न दृष्टिकोणों से वर्णनीय का वर्णन करना स्याद्वाद कहा जाता है । इसमें ऐकान्तिक दृष्टि का सर्वथा अभाव होता है। 'अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः' अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु के प्रतिपादक कथन को स्याद्वाद कहते हैं। ‘स्यादिति वादो वाचकः शब्दो यस्यानेकान्तवादस्यादौ स्याद्वादः' अर्थात स्याद्वाद का अर्थ है वह वाद जिसका वाचक शब्द स्यात् अर्थात् अनेकान्तवाद हो। हम प्रत्येक वस्तु को प्रतिक्षण उत्पन्न होते और नष्ट होते हुए देखते हैं, और साथ ही इस वस्तु के नित्यत्व का भी अनुभव करते हैं; अतएव प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षा से नित्य और सत् और किसी अपेक्षा से अनित्य और असत् आदि समिति । खंड १८, अंक ४ ३३१

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