Book Title: Tulsi Prajna 1993 02
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 59
________________ उक्त शिविका बन्ध चित्रमय श्लोक में ८४ अक्षर होते हैं किन्तु उनमें से केवल ७० अक्षर ही लिखे जाते हैं। शेष १४ अक्षरों की पूर्ति भिन्न भिन्न प्रकोष्ठों के अक्षरों से की जाती है । उक्त श्लोक के रचयिता मुनिश्री नवरत्नमल हैं। उन्होंने अनेक प्रकार के चित्रमय श्लोकों की रचना की है। किसी विषय पर पंचक, सप्तक, अष्ट क, दशक, षोडशक आदि की रचना तो तेरापंथ धर्म संघ के साधु-साध्वियों के लिए बहुत सहज कार्य है । पचासों साधु-साध्वियों ने इस दृष्टि से अनेक विषयों पर रचनाएं की हैं । अनेक द्वात्रिशिकाएं भी लिखी गई हैं । बौद्धिक स्फुरणा के लिए अव्यय निबन्ध, एकाक्षर निबन्ध आदि लिखे गए हैं । साधुसाध्वियों द्वारा सम्पादित हस्तलिखितपत्रिकाओं के संस्कृत विशेषांक निकाले गए हैं। समय-समय पर होने वाली विद्वद्गोष्ठियों में गवेषणा पूर्ण संस्कृत निबन्ध पढ़े गए हैं । बहुत बार परस्पर केवल संस्कृत में ही बोलने का क्रम रहा है। इससे संस्कृत में वाक् प्रवणता का विकास हुआ । साधुओं की तरह साध्वी समाज में भी संस्कृत का अध्ययन और विकास हुआ। बीदासर को घटना हर विकास के मूल में एक गहरी प्रेरणा होती है । प्रेरणा से ही कार्य की निष्पत्ति होती है । तेरापन्थ में संस्कृत के विकास में भी एक ऐसी गहरी प्रेरणा ने काम किया जो आज शतशाखी के रूप में पल्लवित है । विक्रम की बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत के प्रति अनुराग होते हुए भी कोई साधु ऐसा नहीं था जो किसी श्लोक का पूरा अर्थ कर सके । वि. सं. १९६० की घटना है । तेरापन्थ के सातवें आचार्यश्री डालगणी का बीदासर (राजस्थान) में प्रवास था । वहां के तत्कालीन ठाकुर श्री हुकुम सिंह जो संस्कृत के विद्वान नहीं थे पर संस्कृत-प्रेमी अवश्य थे, ने एक संस्कृत का श्लोक डालगणी के पास भेजा और उसका अर्थ जानना चाहा किन्तु वहां उपस्थित साधुओं में से किसी के समझ में उसका अर्थ नहीं आया । आचार्गश्री कालूगणी उस समय मुनि अवस्था में थे। उन्हें संस्कृत के अध्ययन की यह कमी बहुत खटकने लगी । उसी समय से उनकी सुप्तवृत्तियां जाग उठी और संस्कृत का अधिकार पूर्ण अध्ययन करने का मन में विचार किया। उन्होंने सारस्वत का पूर्वार्ध कण्ठस्थ करना प्रारम्भ कर दिया। उसी वर्ष चुरू (राजस्थान) में पंडित घनश्याम दास का योग मिला। उन्होंने सेवाभाव से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करवाया। उसके पश्चात् तो, 'जहां चाह वहां राह' वाली कहावत चरितार्थ होने लगी और विकास के नये-नये आयाम उद्घटित होने लगे । ___संस्कृत साहित्य में नाटक का महत्त्व भी बहुत प्राचीन काल से रहा है। काव्य केवल श्रुतिप्रिय होता है किन्तु नाटक श्रुति प्रिय होने के साथ दृष्टि प्रिय भी होता हैं । यही कारण है कि श्रव्य की अपेक्षा दृश्य में जन मानस का आकर्षण अधिक होता है । कालिदास की ख्याति उनकी काव्य कृतियों की अपेक्षा नाटक कृति से अधिक हुई है। उनका ."अभिज्ञान शाकुन्तलम्' इस दृष्टि से बेजोड़ कृति कही जाती है । जैन परम्परा में संस्कृत नाटक साहित्य का विकास बहुत सीमित हुआ है । तेरा खंड १८, अंक ४ ३२१

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