Book Title: Tritirthi
Author(s): Rina Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 45
________________ प्रकार की पीडा का प्रकोप तो नहीं है?' इस प्रकार कुशलक्षेम पूछकर बाहुबलि मौन हुए, तब उनकी वाणी से आशंकित हुआ हो वैसे सुवेग कुछ विचार करके बहुबली को प्रणाम करके बोला, 'जिसकी कृपा से अन्यों के घरों में भी कुशलता होती है, वैसे आपके ज्येष्ठ बंधु भरत की कुशलता के विषय में प्रश्न ही कहाँ से आएगा? जिसके शत्रुओं को चक्ररत्न स्वयमेव भेद डालता हो, वैसी विनीता नगरी की प्रजा की कुशलता ही सदा संभावित है। छः खण्ड विजय करने में इन भरतराजा के सामने खडा रह पाने में भी कौन समर्थ था? वैसे ही सुर, असुर और मनुष्य सब जिसकी सेवा करते हैं उनके अश्वों, रथों और हस्तियों को भी कौन कष्ट दे सकता है? कारण कि तीन लोक की विजय करने में समर्थ, ऐसे भरतराजा उनका रक्षण करने को विद्यमान हैं। इस पृथ्वी पर रहे सभी लोगों को, जिनके अधिपति भरतराजा हैं, उन्हें सूर्य के होते हुए कमल के समान ग्लानि होना कैसे संभव है? हे महाराज! वे भरतेश्वर सदा लाखों यक्षों, राक्षसों, विद्याधरों और देवताओं से सेवित हैं, तथापि अपने बंधु बाहुबलि के बिना उन्हें आनंद नहीं है। _ 'सब देशों में घूमते समय उन्हें किसी भी स्थान पर जब अपने बंधुओं को नहीं देखा तब वे विशेष उत्कंठा से अपने बंधुओं को चाहने लगे। दिग्विजय में और बारह वर्ष तक मनाए राज्याभिषेक महोत्सव में भी नहीं आए अपने बंधुओं से मिलने के लिए वे बहुत लालायित थे। उनमें से अन्य बंधुओं ने तो मन में कुछ विचार कर पूज्य पिताश्री के पास नि:संगता प्राप्त करने हेतु व्रत ग्रहण कर लिया, और वे तो नि:स्पृह बनकर अपने शरीर के प्रति भी अपेक्षा रहित हो, आत्मा को जिसमें सुख उत्पन्न हो, वैसा व्यवहार करने लगे। इस कारण अब केवल आपसे मिलने की उत्कंठा धारण कर भरतेश्वर ने मुझे यहाँ भेजा है। अतः आप शीघ्र ही वहाँ पधारकर अपना समागम सुख अपने बड़े भाई भरतेश्वर को प्रदान करें। त्रितीर्थी

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