Book Title: Tritirthi
Author(s): Rina Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 113
________________ श्री शंखेश्वर तीर्थ की स्थापना पूर्वकाल में नौवाँ प्रतिवासुदेव जरासंघ राजगृह नगर से समस्त सेना के साथ नौवें वासुदेव कृष्ण से युद्ध करने के लिए पश्चिम दिशा की ओर चला। कृष्ण भी समस्त सैन्य सामग्री सहित द्वारिका से निकल कर उसके सन्मुख देश-सीमा पर आये। जहाँ भगवान अरिष्टनेमि ने पाञ्चजन्यशंख बजाया, वहाँ शंखेश्वर नगर बसा। शंख के निनाद से क्षुब्ध जरासन्ध ने जरा नामक कुलदेवी की आराधना कर कृष्ण की सेना में जरा की विकुर्वणा की, जिससे श्वास-कास रोग से अपनी सेना को पीड़ित देखकर व्याकुल होकर श्रीकृष्ण ने भगवान अरिष्टनेमि से कहा- भगवान् ! मेरी सेना कैसे निरुपद्रव होगी? और मुझे कब जयश्री हस्तगत होगी? तब भगवान ने अवधिज्ञान का उपयोग कर कहा- “पाताल में नागराज से पूज्यमान भावी तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा है, उसे यदि तुम अपनी देव-पूजा के समय पूजो तो सेना निरुपद्रव होगी और तुम्हारी जीत भी होगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने सात महीना तीन दिन में और मतान्तर में तीन दिन निराहार रहकर पन्नगाधिराज की आराधना की, क्रमशः नागराज वासुकि प्रत्यक्ष हुआ। तब कृष्ण ने भक्ति-बहुमानपूर्वक पार्श्वनाथ प्रतिमा की याचना की। नागराज ने उसे अर्पण की। फिर महोत्सवपूर्वक लाकर अपनी देव-पूजा में स्थापित कर त्रिकाल पूजा प्रारम्भ की। उसके न्हवण जल को समस्त सेना पर छींटने से जरा-रोग-शोक-विघ्न निवृत्त होकर श्रीकृष्ण की सेना में समर्थता आ गई। क्रमशः जरासन्ध की पराजय हुई। लोहासुर, गजासुर, वाणासुर आदि सभी जीत लिए गए। 98 त्रितीर्थी

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