Book Title: Tritirthi
Author(s): Rina Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 80
________________ करके मैं भारी कर्मी बना हूँ और आपकी आज्ञा से मूर्ति का लेप करवाकर पुनः स्थापना करूँ तो भविष्य में पुनः मेरी तरह अन्य कोई अज्ञानी इस बिंब का नाश करने वाला बनेगा। आप यदि मेरे तप से प्रसन्न हों, तो मुझे ऐसी कोई अभंग मूर्ति दीजिए जिससे भविष्य में किसी के द्वारा इसका नाश न हो सके और भक्तजन भाव से जलाभिषेक करके अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर सकें ।' देवी रत्नसार श्रावक के वचन को सुना अनसुना कर अदृश्य हो गयी। देवी को अदृश्य होते देखकर अनुपम सत्त्व का धनी रत्नसार श्रावक पुनः देवी के ध्यान में बैठ गया। रत्नसार के महासत्त्व की कसौटी करने के लिए देवी ने अनेक उपसर्गों के द्वारा उसे ध्यान से चलायमान करने की कोशिश की परन्तु रत्नसार श्रावक अपनी साधना में निश्वल रहा। तब गर्जना करते हुए सिंहवाहन के ऊपर बैठकर चारों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई देवी पुनः प्रत्यक्ष होकर कहती है, 'हे वत्स ! तेरे दृढ सत्त्व से मैं प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे वरदान माँगो।' देवी के इन वचनों को सुनकर रत्नसार श्रावक कहता है, 'हे माँ ! इस महातीर्थ के उद्धार के सिवाय मेरा अन्य कोई मनोरथ नहीं है, आप मुझे श्री नेमिनाथ भगवान की ऐसी वज्रमय मूर्ति दीजिए जो शाश्वत रहे, और जिसकी पूजा से मेरा जन्म कृतार्थ बने एवं पूजा करनेवाले अन्य जीव भी हर्षोल्लास को प्राप्त करें!' तब देवी कहती है, 'सर्वज्ञ भगवत ने तेरे द्वारा तीर्थ का उद्धार होगा ऐसा कहा है इसलिए तुम मेरे साथ चलो! मेरे पीछे पीछे इधर उधर देखे बिना चले आओ'। रत्नसार श्रावक देवी के पीछे पीछे चलने लगा। बायीं तरफ के अन्य शिखरों को छोडती हुई देवी पूर्व दिशा की तरफ, हिमाद्रिपर्वत के कंचन शिखर पर गयी, जहाँ सुवर्ण नामक, गुफा के पास आकर देवी सिद्धविनायक नामक अधिष्ठायक देव को विनती करती है, 'भद्र! इन्द्र महाराजा के आदेश से आप इस शिखर के रक्षक हो अत: यह द्वार खोलो। गिरनार तीर्थ

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