Book Title: Tritirthi
Author(s): Rina Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 10
________________ भाष्य में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख है- नामतीर्थ, स्थापनातीर्थ, और द्रव्यतीर्थ । भावतीर्थ तीर्थ यात्राओं में श्वेताम्बर परम्पराओं में जो छहरीपालक संघयात्रा की प्रवृत्ति प्रचलित है। उसका पूर्व बीज भी हरिभद्र के विवरण में स्पष्ट रूप से दिखाई देता हैं। आज भी तीर्थ यात्रा में इन छः बातों का पालन अच्छा माना जाता है । एकाहारी, भूआधारी, पादाचारी, श्रद्धाधारी, सचित्तपरिहारी और ब्रह्मचारी । तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म साधना है, बल्कि इसका व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णी में मिलता है । उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य ग्राम नगरों को नहीं देखता वह कूपमंडूक होता है । इसके विपरीत जो भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम-नगर, सन्निवेश, जनपद, राजधानी आदि में विचरण कर व्यवहार कुशल हो जाता है तथा नदी, गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु सुख को भी प्राप्त करता है। साथ ही तीर्थंकरों के कल्याणक भूमियों को देखकर दर्शन विशुद्धि भी प्राप्त करता है । पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता है और इनकी समाचारी से भी परिचित हो जाता है । परस्पर दानादि द्वारा विविध प्रकार के घृत, दधि, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यंजनों का रस भी ले लेता है । जैन धर्म की अत्यधिक प्राचीनता, इसकी दीर्घायु और अद्यावधि लोकप्रियता, इसके अनेक सिद्धान्तों यथा व्यावहारिक दृष्टिकोण से अहिंसा और सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से स्याद्वाद की समसामयिकता इस धर्म को सहज ही अत्यन्त रोचक बनाते हैं । सामान्यरूप से तीर्थङ्करों के प्रतिमा स्थापना इत्यादि की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और धीरे-धीरे प्रसिद्ध हो जाने पर इन्हीं प्रतिमाओं और जिनालयों के आधार पर उन तीर्थस्थलों को प्रस्तावना IX

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