Book Title: Tritirthi Author(s): Rina Jain Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 9
________________ प्राचीन काल से उन तीर्थों की यात्रा साधु-साध्वी एवं चतुर्विध संघ तथा श्रावक संघ करते आ रहे हैं। ऐसे बहुत से यात्री संघों का विवरण समय-समय पर लिखा जाता रहा है। यों तीर्थों के माहात्म्य और ऐतिहासिक वृत्तान्त काफी लिखे गए। आवागमन की सुविधा पूर्वापेक्षा बहुत अधिक बढ़ चुकी है अतः यात्री संघ खूब निकलने लगे हैं। तीर्थों की यात्रा का विवरण व प्राचीन इतिहास जानने के लिए लोगों की बहुत उत्सुकता है पर जिस ढंग का और जितने परिमाण में साहित्य प्रकाशन व प्रचार होना चाहिए, वह नहीं हो सका है। जैन तीर्थों के सम्बन्ध में श्वेताम्बर जैन परम्परा के आगमों, उनकी नियुक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों और टीकाओं में तथा दिगम्बर परम्परा के विभिन्न ग्रंथों यथा-तिलोयपण्णत्ती, पुराण साहित्य एवं कथा ग्रंथों में बहुत कुछ सामग्री प्राप्त होती है। तीर्थों के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रचनाओं का प्रारम्भ ईसवी सन् की ११वीं शती से माना जाता है, इसके बाद से दोनों सम्प्रदायों में चैत्य परिपाटी, तीर्थयात्रा विवरण, तीर्थमालाएँ, तीर्थस्तवन आदि अनेक रचनायें निर्मित हुई। जिनप्रभसूरिकृत कल्पप्रदीप अपरनाम विविध तीर्थकल्प इन सभी रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ है। जैन धर्म में तीर्थ एवं तीर्थंकर की अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी हुई हैं और वे जैन धर्म की प्राण हैं। 'तीर्यते अननेति तीर्थः' (अभिधान राजेन्द्रकोश, चतुर्थ भाग) अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ कहलाता है। वास्तविक तीर्थ तो वह है जो जीव को संसार समुद्र से उस पार मोक्षरूपी तट पर पहुँचाता है। हमारे आत्मा के मल को धोकर हमें संसार सागर से पार कराता है। समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, संतोष, ब्रह्मचर्य का पालन, प्रिय वचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्यकर्म यह सभी तीर्थ हैं (शब्दकल्पद्रुम तीर्थ, पृ. ६२६)। जैन धर्म में तीर्थ के जंगमतीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी किए हैं। विशेषावश्यक VIII त्रितीर्थीPage Navigation
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