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कर देती थी । बड़े-बड़े ऋषिगणों की शंकाएँ भी उनके दर्शन मात्र से शांत हो जाती थीं। वे शंकाओं का समाधान नहीं करते थे, वरन् स्वयं समाधान थे ।
एक दिन वे राजमहल की चौथी मंजिल पर एकान्त में विचार- मग्न बैठे थे। उनके बाल साथी उनसे मिलने को आए और माँ त्रिशला से पूछने लगे- "वर्द्धमान कहां है ?"
गृहकार्य में संलग्न माँ ने सहज ही कह दिया- “ऊपर” सब बालक ऊपर को दौड़े और हाँफते हुए सातवीं मंजिल पर पहुँचे, पर वहां वर्द्धमान को न पाया। जब उन्होंने स्वाध्याय में संलग्न राजा सिद्धार्थ से वर्द्धमान के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने बिना गर्दन उठाये ही कह दिया- "नीचे" ।
माँ और पिता के परस्पर विरुद्ध कथनों को सुनकर बालक असमंजस में पड़ गए । अन्ततः उन्होंने एक-एक मंजिल खोजना आरम्भ किया और चौथी मंजिल पर वर्द्धमान को विचारमग्न बैठे पाया ।
सब साथियों ने उलाहने के स्वर में कहा - "तुम यहां छिपे-छिपे दार्शनिकों की सी मुद्रा में बैठे हो और हमने सातों मंजिलें छान डालीं"।
"माँ से क्यों नहीं पूछा ?" वर्द्धमान ने सहज प्रश्न किया । साथी बोले, "पूछने से ही तो सब कुछ गड़बड़ हुआ । माँ कहती हैं - 'ऊपर' और पिताजी, 'नीचे' । कहां खोजें ? कौन सत्य है ?"
वर्द्धमान ने कहा- "दोनों सत्य हैं। मैं चौथी मंजिल पर होने से माँ की अपेक्षा 'ऊपर' और पिताजी की अपेक्षा 'नीचे' हूँ; क्योंकि माँ पहली मंजिल और पिताजी सातवीं मंजिल पर हैं । इतना भी