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(१५)
(२) सब आत्माएँ समान हैं, पर एक नहीं ।
(३) यदि सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है।
(४) प्रत्येक प्राणी अपनी भूल से स्वयं दुःखी है और अपनी भूल सुधार कर सुखी भी हो सकता है।
भगवान महावीर ने जो कहा, वह कोई नया सत्य नहीं था । सत्य में नये-पुराने का भेद कैसा ? उन्होंने जो कहा वह सदा से है, सनातन है । उन्होंने सत्य की स्थापना नहीं, सत्य का उद्घाटन किया। उन्होंने कोई नया धर्म स्थापित नहीं किया । उन्होंने धर्म को नहीं, धर्म में खोई आस्था को स्थापित किया । धर्म वस्तु के स्वभाव को कहते हैं । वस्तु का स्वभाव बनाया नहीं जा सकता । जो बनाया जा सके, वह स्वभाव कैसा ? वह तो जाना जाता है ।
कर्तृत्व के अहंकार एवं अपनत्व के ममकार से दूर रह कर जो स्व और पर को समग्र रूप से जान सके, महावीर के अनुसार वही भगवान है। भगवान जगत का तटस्थ ज्ञाता-दृष्टा होता है, कर्ता-धर्ता नहीं । जो समस्त जगत को जानकर उससे पूर्ण अलिप्त वीतराग रह सके अथवा पूर्ण रूप से अप्रभावित रहकर जान सके, वही भगवान है । तीर्थंकर भगवान वस्तुस्वरूप को जानते हैं, बताते हैं; बनाते नहीं ।
वे तीर्थंकर थे, उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। उन्होंने जो उपदेश दिया उसे आचार्य समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ कहा है - ( उपजाति)
सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पम्, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव । । ' १. युक्त्यनुशासन, श्लोक ६२