Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ (१८) आत्म शुद्धि के लिए मोह-राग-द्वेष रूप भावहिंसा का त्याग आवश्यक है । महावीर ने जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। वे योग्यता-मूलक समाज-व्यवस्था में विश्वास रखते थे; क्योंकि व्यक्ति की ऊँचाई का आधार उसकी योग्यता और आचार-विचार है, न कि जन्म | जन्म से ही छोटे-बड़े का भेद करना भी हिंसात्मक आचरण है । आज हमने मानव-मानव के बीच अनेक दीवारें खड़ी करली हैं। ये दीवारें प्राकृतिक न होकर हमारे द्वारा ही खड़ी की गई हैं। ये दीवारें रंग-भेद, वर्ण-भेद, जाति-भेद, कुल-भेद, देश व प्रान्त-भेद आदि की हैं। यही कारण है कि आज सारे विश्व में एक तनाव का वातावरण है । एक देश दूसरे देश से शंकित है और एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से । यहाँ तक कि मानव मानव की ही नहीं, एक प्राणी दूसरे प्राणी की इच्छा और आकांक्षाओं को अविश्वास की दृष्टि से देखता है। भले ही वे परस्पर एक दूसरे से पूर्णतः असंपृक्त ही क्यों न हों, पर एक दूसरे के लक्ष्य से एक विशेष प्रकार का तनाव लेकर जी रहे हैं। तनाव से सारे विश्व का वातावरण एक घुटन का वातावरण बन रहा है। वास्तविक धर्म वह है जो इस तनाव को व घुटन को समाप्त करे या कम करे । तनावों से वातावरण विषाक्त बनता है और विषाक्त वातावरण मानसिक शान्ति भंग कर देता है। तीर्थंकर महावीर की पूर्वकालीन एवं समकालीन परिस्थिति भी सब कुछ मिलाकर इसी प्रकार की थी । तीर्थंकर महावीर के मानस में आत्मकल्याण के साथ-साथ विश्वकल्याण की प्रेरणा भी थी और उसी प्रेरणा ने उन्हें तीर्थंकर बनाया। उनका सर्वोदय तीर्थ आज भी उतना ही ग्राह्य, ताजा और

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