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(१६) प्रेरणाप्रद है-जितना उनके समय में था। उनके तीर्थ में न संकीर्णता थी और न मानवकृत सीमाएँ । जीवन की जिस धारा को वे मानव के लिए प्रवाहित करना चाहते थे, वही वस्तुतः सनातन सत्य है।
धार्मिक जड़ता और आर्थिक अपव्यय रोकने के लिए महावीर ने क्रियाकाण्ड और यज्ञों का विरोध किया। आदमी को आदमी के निकट लाने के लिए वर्ण-व्यवस्था को कर्म के आधार पर बताया । जीवन के जीने के लिए अनेकान्त की भावभूमि, स्याद्वाद की भाषा और अणुव्रत का आचार-व्यवहार दिया और मानवव्यक्तित्व के चरम विकास के लिए कहा कि ईश्वर तुम्ही हो, अपने आप को पहिचानो और ईश्वरीय गुणों का विकास कर ईश्वरत्व को पाओ।
तीर्थंकर महावीर ने जिस सर्वोदय तीर्थ का प्रणयन किया, उसके जिस धर्मतत्त्व को लोक के सामने रखा; उसमें न जाति की सीमा है, न क्षेत्र की और न काल की; न रंग, वर्ण, लिंग आदि की। धर्म में संकीर्णता और सीमा नहीं होती। ___ आत्मधर्म सभी आत्माओं के लिए है और धर्म को मात्र मानव से जोड़ना भी एक प्रकार की संकीर्णता है, वह तो प्राणीमात्र का धर्म है । 'मानवधर्म' शब्द भी पूर्ण उदारता का सूचक नहीं है। वह भी धर्म के क्षेत्र को मानव समाज तक ही सीमित करता है; जब कि धर्म का सम्बन्ध समस्त प्राणी जगत से है; क्योंकि सभी प्राणी सुख और शान्ति से रहना चाहते हैं ।
धर्म का सर्वोदय स्वरूप तब तक प्राप्त नहीं हो सकता; जब तक कि आग्रह समाप्त नहीं हो जाता; क्योंकि आग्रह विग्रह को जन्म देता है, प्राणी को असहिष्णु बना देता है।
धार्मिक असहिष्णुता से भी विश्व में बहुत कलह व रक्तपात