Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ ( १२ ) वे मौन रहते थे, किसी से बातचीत नहीं करते थे । कंटकाकीर्ण भूमि ही उनकी शय्या थी और नीला आकाश ही चादर । भुजा का तकिया बना कर रात्रि के पिछले पहर में वे एक करवट मुश्किल से घड़ी-दोघड़ी निद्रा लेते थे । निरन्तर आत्मचिन्तन में ही लगे रहते थे। यहाँ तक कि स्नान और दन्तधोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु और मित्र में समभाव रखने वाले महावीर गिरि-कन्दराओं में वास करते थे । शीत, ग्रीष्म, वर्षादि ऋतुओं के प्रचण्ड वेग से वे 1 तनिक भी विचलित न होते थे । उनकी सौम्य मूर्ति, स्वाभाविक सरलता, अहिंसामय जीवन एवं शांत स्वभाव का प्रभाव वन्यपशुओं पर भी पड़ता था और वे स्वभावगत वैर-विरोध छोड़ साम्यभाव धारण करते थे । अहि-नकुल तथा गाय और शेर एक घाट पानी पीते थे । जहाँ वे ठहरते, वातावरण शान्तिमय हो जाता था । कभी कदाचित् भोजन का विकल्प उठता तो अनेक अटपटी प्रतिज्ञाएँ लेकर वे भोजन के लिए समीपस्थ नगर की ओर आते । यदि कोई श्रावक उनकी प्रतिज्ञाओं के अनुरूप शुद्ध सात्विक आहार नवधा भक्ति-पूर्वक देता तो अत्यन्त सावधानीपूर्वक खड़ेखड़े निरीह भाव से रूखा-सूखा आहार ग्रहण कर शीघ्र वन को वापिस चले जाते थे। मुनिराज महावीर का आहार एक बार अति विपन्नावस्था को प्राप्त सती चंदनबाला के हाथ से भी हुआ था । इसप्रकार अन्तर्बाह्य घोर तपश्चरण करते बारह वर्ष बीत गए । बयालीस वर्ष की अवस्था में आत्म-निमग्नता की दशा में उन्होंने अन्तर में विद्यमान सूक्ष्म राग का भी अभाव कर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त करली । पूर्ण वीतरागता प्राप्त होते ही उन्हें परिपूर्ण ज्ञान की भी प्राप्ति हुई । मोह-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को पूर्णतया

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