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(१०) नहीं समझते ? ऊपर-नीचे की स्थिति सापेक्ष है। बिना अपेक्षा ऊपर-नीचे का प्रश्न ही नहीं उठता। वस्तु की स्थिति, पर से निरपेक्ष होने पर भी उसका कथन सापेक्ष होता है। प्रतिपादन की इसी शैली को ही तो स्याद्वाद कहते हैं | स्याद्वाद एक ऐसी शैली है, जिसमें कहीं किसी को कोई विरोध नहीं आ सकता। यह सर्व समाधानकारक एवं सर्व समन्वयसंयुक्त वाणी है।"
इसप्रकार बालक वर्द्धमान स्याद्वाद जैसे गहन सिद्धान्तों को बालकों को भी सहज समझा देते थे।
वे बड़े धीर-वीर क्षत्रिय युवक थे। वे चाहते तो राजा बन सकते थे। प्रजा को सता कर अपना राजकोष भर सकते थे और उसके बल पर एक बड़ी भारी सेना रख कर बहुत से हरे-भरे देशों को उजाड़ बना कर महाराजा भी बन सकते थे। पर यह सब-कुछ उन्हें इष्ट न था।
जिसे हम सम्पत्ति मानते हैं, वह उन्हें विपत्ति प्रतीत हुई; राज्य-सुख बंधन लगा। मानवता के उत्पीड़न में आनन्द की कल्पना वे न कर सके। वे तो शाश्वत अतीन्द्रिय आनन्द की खोज में थे और वह आनन्द बाहर से नहीं, अपने अंतर में प्राप्त होने वाली वस्तु है; अतः उनकी वृत्तियाँ अन्तरोन्मुखी हो गईं। ___ उस युग में बाह्य वातावरण हिंसा से व्याप्त था। धर्म के नाम पर भी हिंसा ताण्डव-नृत्य कर रही थी। यज्ञों में पशुओं की बलि तो साधारण बात हो गई थी, नरमेघ यज्ञ तक होने लगे थे। धर्म के ठेकेदार स्वर्ग में भेजने के बहाने धर्म के नाम पर निरीह पशुओं और असहाय मानवों को होमने लगे थे।
अहिंसा के अवतार महावीर का अपने को उक्त वातावरण में खपा पाना सम्भव न था। वे सबको सन्मार्ग दिखाना चाहते थे;