Book Title: Tiloypannatti Part 2 Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha View full book textPage 3
________________ सम्पादकीय तिलोयपण्णी : द्वितीयखण्ड (चतुषं महाधिकार ) प्राचीन कशड़ प्रतियों के परसम्म श्री तिस काह कप जिसमें केवल चतुर्थ अधिकार का गद्य-पद्य भाग है— अगने पाठकों को सौंपते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है पतिवृषभाचार्य रचित तिलोपणती लोकविषयक साहित्य की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें सगवश धर्म, संस्कृति व इतिहास पुराण से सम्बन्धित अनेक विषय सम्मिनित हो गये हैं इस अन्य का दो खण्डों में प्रथम प्रकाशन १९४६ व १९५१ में हुआ था। इसके सम्पादक वे प्रो० हीटातात जेन व प्रो० ए० एन० उपाध्ये पं० वी ने प्राकृत गाथाओं का मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद किया पर आधार पर इसका सुन्दर सम्पादन अपनी तीयण मेाशक्ति के बाई के पात्र है। सम्पादक प ने उस समय बल पर परिश्रमपूर्वक किया था + प्राचीन प्रतियों के कोटि-कोटि प्रस्तुत संस्करण की बाधार प्रति जनबढी से प्राप्त लिप्यन्तरित ( कन्नड़ में देवनागरी) प्रति है। अन्य सभी प्रतियों के पाठभेद टिप्पण में दिये गये हैं। प्रतियों का परिचय पहले लण्ड की प्रस्तावना में माचुका है । परम पूज्य १०५ आपिका श्री निमती माती के पुरुषायें का ही यह मधुर परियक है। गत पनि वर्षों से पूज्य माताजी इस दुरूह ग्रन्थ को सरस बन्दाने हेतु प्रयत्नशील रही है। नापने विस्तृत हिन्दी टीका की है, विषय को मित्रों के माध्यम से स्पष्ट किया है और अनेकानेक तालिकाओं के माध्यम से विषय को एकत्र किया है। प्रस्तुत संस्करण में कुछ गद्य भाग सहित कुल ३००६ गावाऐं है (सोलापूर-संस्करण में कुल गावायें २६५१ ] ३० चित्र है और ४५ तालिकाएँ भी सम्पादन की वही विधि अपनाई गई है जो पहले शब्द में अपनाई गई बी अर्थात् सर्व की संगति को देखते हुए शुद्ध पाठ रखना ही ध्येय रहा है फिर भी यह बढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता कि व्यवस्थित पाठ हो ग्रन्थ का शुद्ध और मन्तिम रूप है । न चतुर्थ अधिकार - दिनोपपली प्रत्य का सबसे बड़ा अधिकार है जिसमें मनुष्यलोक का विस्तृत है। इसमें १६ अधिकार है और कुल ३००६ गाथाएँ व थोड़ा गद्य भी गाया बन्द के अतिरिक्त आचार्य श्री ने इन्द्रवज्रा दोधक, वसन्ततिलका बोर मा बिक्रीवित सत्य में भी रचना की है पर इनकी संख्या नगण्य है। अधिकार के प्रारम्भ में पद्मप्रभ भगवान को नमस्कार किया है और अन्त मे सुपार्श्वनाथ भगवान को सोलह मन्तराधिकार इस प्रकार है- मनुष्य लोक का निर्देश, जम्बूद्वीप, नवबसमुद्र, घातकी कालरेदक समुद्र, दुष्करार्ध द्वीप-इन अवार्ड द्वीप समुद्रों में स्थित मनुष्यों के भेद, क्या अल्पबहुरन, गुणस्थानादि, धम्मक परिणाम, योनि सुख-दुःख सभ्यस्तम के कारण फोर मोक्ष जाने वाले जीवों का प्रमाण । २, ४, और ६ अन्तराधिकारों के अन्तर्गत अपने अपने १६ १६ अन्तराधिकार और भोजका १६ अन्तरा धिकारों में, विस्तार से किया गया है लगभग २४२५ गावात्रों में यह बन गया है। समानता के कारण मालकी खण्ड और पुष्कराचं द्वीप के वन को विस्तृत नहीं किया गया है। चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन बहुत विस्तार से (५२६ गाया से १२८० गाथाओं में हुआ है । अन्तिम दस अन्नशधिकारों (७ से १६ तक ) का बन केवलPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 866