Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Akhileshmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 68
________________ सातवाँ अध्याय - - - - - - - - - - - - - - - सातवाँ अध्याय १-हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से—मन, वचन, काय द्वारा निवृत्त होना व्रत है। २-अल्प अंश में विरति—अणुव्रत है और सर्वांश में विरति-महाव्रत है। ३-उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं। ४-हिंसा आदि पाँच दोषों में ऐहिक आपत्ति और पार-लौकिक अनिष्ट का दर्शन करना। ५-अथवा उक्त हिंसा आदि दोष दुःखरूप ही हैं, ऐसी भावना करना। ६-प्राणिमात्र पर मैत्री-वृत्ति, गुणाधिकों पर प्रमोद-वृत्ति, दुःखितों पर करुणावृत्ति और अविनीतजनों पर माध्यस्थ्यवृत्ति रखना चाहिए। ७--संवेग तथा वैराग्य के लिए जगत् और शरीर के स्वाभाव का विचार करना चाहिए। ८-प्रमत्तयोग से होने वाला प्राण-वध हिंसा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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