Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ पाठ ४ उपादान-निमित्त श्रद्धान तो ऐसा रखो कि - यह भी बंध का कारण है - हेय है; श्रद्धान में इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही होता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि लौकिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य अच्छा है व इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर शास्त्रों में उसे व्यवहार से धर्म भी कहा गया है तथापि मुक्ति के मार्ग में उसका स्थान अभावात्मक ही है। पुण्य भला मानने में मूल कारण पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली भोग-सामग्री में सुखबुद्धि है। जब तक भोगों को सुखरूप माना जाता रहेगा तब तक पुण्य में उपादेयबुद्धि नहीं जा सकती। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा के स्पर्श के बिना भोगों में से सुखबुद्धि नहीं जा सकती है। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का अनुभव ही शुद्ध भाव है जो कि शुभाशुभ (पुण्य-पाप) भाव के अभावरूप होता है। अतः सम्यक् सुखाभिलाषी जीवों को आत्मानुभूतिरूप शुद्धभाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। पुण्य भला मानने में मूल कारण पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली भोग-सामग्री में सुखबुद्धि है। जब तक भोगों को सुखरूप माना जाता रहेगा तब तक पुण्य में उपादेयबुद्धि नहीं जा सकती। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा के स्पर्श के बिना भोगों में से सुखबुद्धि नहीं जा सकती है। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का अनुभव ही शुद्ध भाव है जो कि शुभाशुभ (पुण्य-पाप) भाव के अभावरूप होता है। अतः सम्यक् सुखाभिलाषी जीवों को आत्मानुभूतिरूप शुद्ध भाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रवचनकार मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ।। जगत का प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील है। पदार्थों के परिणमन को पर्याय या कार्य कहते हैं। कार्य को कर्म, अवस्था, हालत, दशा, परिणाम और परिणति भी कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। उसे अपने परिणमन में दूसरे के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। अज्ञानी जीव पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यर्थ ही दुःखी होते हैं। जिज्ञासु - कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है। अतः कारणों की खोज को व्यर्थ कैसे माना जा सकता है? प्रवचनकार - तुम ठीक कहते हो कि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। किन्तु जानते हो कारण किसे कहते हैं? कार्य की उत्पादक सामग्री को ही कारण कहते हैं। वे कारण दो प्रकार के होते हैं - उपादानकारण और प्रश्न :१. मुक्ति के मार्ग में पुण्य का क्या स्थान है? २. पुण्य और पाप किसे कहते हैं? ३. पुण्य और पाप के कारणादि भेदों को स्पष्ट करते हुए दोनों में सयुक्ति एकत्व स्थापित कीजिए। निमित्तकारण। जो स्वयं कार्यरूप परिणमित हो, उसे उपादानकारण कहते हैं। जो स्वयं कार्यरूप परिणमित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके, उसे निमित्तकारण कहते हैं; जैसे - 'घट' रूप कार्य का मिट्टी उपादानकारण है और चक्र, दण्ड एवं कुम्हार निमित्तकारण हैं। १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, २२६ 12

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