Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग - २ यह आत्मा अपनी भूल से पर्याय में चाहे जितना उन्मार्गी बने, पर आत्मस्वभाव उसे कभी भी छोड़ नहीं देता; किन्तु जब तक यह आत्मा अपनी दृष्टि को समस्त पर पदार्थों से हटाकर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता तब तक आत्मस्वभाव की सच्ची अनुभूति भी प्राप्त नहीं हो सकती । आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए बाह्य साधनों की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है। जैसे लोक में अपनी वस्तु के उपयोग के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता है; उसी प्रकार आत्मानुभूति के लिए बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं को, स्वयं की, स्वयं के द्वारा ही तो अनुभूति करना है। आखिर इसमें पर की अपेक्षा क्यों हो? आत्मानुभूति में पर के सहयोग का विकल्प बाधक ही है, साधक नहीं । ३२ आत्मानुभूति के काल में पर सम्बन्धी विकल्पमात्र आत्मानुभूति की एकरसता को छिन्न-भिन्न किए बिना नहीं रहता है। अतः यह निश्चित है कि जो साधक अपनी साधना में पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यग्र रहता है, उसके पल्ले मात्र व्यग्रता ही पड़ती है; उसे साध्य की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। अतः आत्मानुभव के अभिलाषी मुमुक्षुओं को पर के सहयोग की कल्पना में आकुलित नहीं रहना चाहिए। शुभाशुभ विकल्पों के टूटने की प्रक्रिया और क्रम क्या है ? तथा परनिरपेक्ष आत्मानुभूति के मार्ग के पथिक की अंतरंग व बहिरंग दशा कैसी होती है? ये अपने आपमें विस्तृत विषय हैं। इन पर पृथक् से विवेचन अपेक्षित है। प्रश्न - १. आत्मानुभूति किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए। २. तत्त्वविचार किसे कहते हैं? समझाइये । ३. “आत्मानुभूति और तत्त्वविचार" इस विषय पर एक निबंध लिखिए । 17 पाठ ६ षट् कारक आचार्य कुन्दकुन्द (व्यक्तित्व और कर्तृत्व) मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलम् ।। परम आध्यात्मिक सन्त कुन्दकुन्दाचार्यदेव को समग्र दिगम्बर जैन आचार्य परम्परा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें भगवान महावीर और गौतम गणधर के तत्काल बाद मंगलस्वरूप स्मरण किया जाता है। प्रत्येक दिगम्बर जैन उक्त छन्द को शास्त्राध्ययन आरंभ करने के पूर्व प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक बोलता है। दिगम्बर साधु अपने आपको कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा का कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। दिगम्बर जैन समाज कुन्दकुन्दाचार्य देव के नाम एवं काम (महिमा) से जितना परिचित है, उनके जीवन से उतना ही अपरिचित है। लोकेषणा से दूर रहने वाले अन्तर्मग्न कुन्दकुन्द ने अपने बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा है। 'द्वादशानुप्रेक्षा' में मात्र नाम का उल्लेख है। इसी प्रकार 'बोधपाहुड' में अपने को द्वादश अंग ग्रन्थों के ज्ञाता तथा चौदह पूर्वों का विपुल प्रसार करने वाले श्रुतज्ञानी भद्रबाहु का शिष्य लिखा है। यद्यपि परवर्ती ग्रन्थकारों ने श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक आपका उल्लेख किया है, उससे उनकी महानता पर तो प्रकाश पड़ता है, तथापि उनके जीवन के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। प्राप्त जानकारी के अनुसार इनका समय विक्रम सम्वत् का आरंभ काल है। श्रुतसागर सूरि ने 'षट्प्राभृत' की टीका प्रशस्ति में इन्हें कलिकाल सर्वज्ञ कहा है। इन्हें कई ऋद्धियाँ प्राप्त थीं और इन्होंने विदेहक्षेत्र में विराजमान विद्यमान तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधरनाथ के साक्षात् दर्शन किए थे। विक्रम

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35