Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ तीर्थंकर भगवान महावीर बहुत आग्रह किया, पर वे तो इन्द्रियनिग्रह का निश्चय कर चके थे। चारों ओर से उन्हें गृहस्थी के बन्धन में बाँधने के अनेक यत्न किए गए, पर वे अबन्धस्वभावी आत्मा का आश्रय लेकर संसार के सर्व बंधनों से मुक्त होने का निश्चय कर चुके थे। जो मोह-बन्धन तोड़ चुका हो, उसे कौन बाँध सकता है? परिणामस्वरूप तीस वर्षीय भरे यौवन में मंगसिर कृष्ण दशमी के दिन उन्होंने घर-बार छोड़ा । नग्न दिगम्बर हो निर्जन वन में आत्मसाधनारत हो गए। उनके तप (दीक्षा) कल्याणक के शुभ-प्रसंग पर लौकान्तिक देवों ने आकर विनयपूर्वक उनके इस कार्य की भक्तिपूर्वक प्रशंसा की। मुनिराज वर्द्धमान मौन रहते थे, किसी से बातचीत नहीं करते थे। निरन्तर आत्मचिन्तन में ही लगे रहते थे। यहाँ तक कि स्नान और दन्तधोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु और मित्र में समभाव रखने वाले मुनिराज महावीर गिरि-कन्दराओं में वास करते थे। शीत, ग्रीष्म, वर्षादि ऋतुओं के प्रचण्ड वेग से वे तनिक भी विचलित न होते थे। उनकी सौम्यमूर्ति, स्वाभाविक सरलता, अहिंसामय जीवन एवं शान्त स्वभाव को देखकर बहुधा वन्यपशु स्वभावगत वैर-विरोध छोड़कर साम्यभाव धारण करते थे। अहि-नकुल तथा गाय और शेर एक घाट पानी पीते थे। जहाँ वे ठहरते, वातावरण सहज शान्तिमय हो जाता था। कभी कदाचित् भोजन का विकल्प उठता तो अनेक अटपटी प्रतिज्ञाएँ लेकर वे भोजन के लिए समीपस्थ नगर की ओर आते । यदि कोई श्रावक उनकी प्रतिज्ञाओं के अनुरूप शुद्ध, सात्विक आहार नवधाभक्तिपूर्वक देता तो अत्यन्त सावधानीपूर्वक खड़े-खड़े निरीह भाव से आहार ग्रहण कर शीघ्र वन को वापिस चले जाते थे। मुनिराज महावीर का आहार एक बार अति विपन्नावस्था को प्राप्त सती चंदनवाला के हाथ से भी हुआ था। इस प्रकार अन्तर्बाह्य घोर तपश्चरण करते बारह वर्ष बीत गए । बयालीस वर्ष की अवस्था में बैसाख शुक्ला दशमी के दिन आत्म-निमग्नता की दशा में उन्होंने अन्तर में विद्यमान सूक्ष्म राग का भी अभाव कर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त कर ली। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होते ही उन्हें परिपूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) की भी प्राप्ति हुई । मोह-राग-द्वेषरूपी शत्रुओं को पूर्णतया जीत लेने से वे सच्चे महावीर बने । पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ होने से वे भगवान कहलाए। उसी समय तीर्थंकर नामक महा पुण्योदय से उन्हें तीर्थंकर पद प्राप्त हआ और वे तीर्थकर भगवान महावीर के रूप में विश्रुत हुए। उनका उपदेश श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन आरंभ हुआ। यही कारण है इस दिन सारे भारतवर्ष में वीर-शासन जयन्ती मनाई जाती है। उनका तत्त्वोपदेश होने के लिए इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना की। तीर्थंकर की धर्मसभा को 'समवशरण' कहा जाता है। उनकी धर्मसभा में प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार प्राप्त था। छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था। जिसका आधार अहिंसक है, जिसने विचार में वस्तु-तत्त्व को स्पर्श किया है, तथा जो अपने में उतर चुका है, चाहे वह चांडाल ही क्यों न हो; वह मानव ही नहीं, देव से भी बढ़कर है। कहा भी है : सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ।।' उनकी धर्मसभा में राजा-रंक, गरीब-अमीर, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठकर धर्म-श्रवण करते थे। यहाँ तक कि उसमें मानवों-देवों के साथसाथ पशुओं के बैठने की भी व्यवस्था थी और बहुत से पशुगण भी शान्तिपूर्वक धर्मश्रवण करते थे। सर्वप्राणी समभाव जैसा महावीर की धर्मसभा में प्राप्त था वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ में मुनि-संघ और श्रावक-संघ के साथ-साथ आर्यिका-संघ और श्राविका-संघ भी थे। ___ अनेक विरोधी विद्वान भी उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपनी परम्पराओं को त्याग कर उनके शिष्य बने । प्रमुख विरोधी विद्वान इन्द्रभूति गौतम तो उनके पट्टशिष्यों में से हैं। वे ही उनके प्रथम गणधर बने जो कि गौतम स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे भगवान महावीर के शिष्य कैसे बने, इसका विवरण निम्न प्रकार प्राप्त होता है : इन्द्रभूति गौतम वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे। उनके पाँच सौ शिष्य थे। इन्द्र ने जब यह अनुभव किया कि भगवान की दिव्यध्वनि को पूर्णतः धारण करने में समर्थ उनका पट्टशिष्य बनने के योग्य इन्द्रभूति गौतम ही है, तब वह वृद्ध ब्राह्मण के वेष में उनके आश्रम में पहुँचा । इन्द्र ने इन्द्रभूति के समक्ष १ आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक २८ 29

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35