Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ दौषावरणयौर्हानि - ___ नि:शेषाऽस्त्यतिशायनात्। क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।४।। हे भगवन्! आपकी महानता तो वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण ही है। वीतरागता और सर्वज्ञता असंभव नहीं है। मोह, राग, द्वेषादि दोष और ज्ञानावरणादि आवरणों का संपूर्ण अभाव संभव है, क्योंकि इनकी हानि क्रमशः होती देखी जाती है। जिस प्रकार लोक में अशद्ध कनक-पाषाणादि में स्वहेतुओं से अर्थात् अग्नितापादि से अंतर्बाह्य मन का अभाव होकर स्वर्ण की शुद्धता होती देखी जाती है, उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप ध्यानाग्नि के ताप से किसी आत्मा के दोषावरण की हानि होकर वीतरागता और सर्वज्ञता प्रगट होना संभव है।।४।। सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादि रिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।।५।। परमाणु आदि सूक्ष्म, राग आदिक अन्तरित एवं मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो-जो अनुमान से जाने जाते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष भी होते हैं। जैसे दूरस्थ अग्नि का हम धूम देखकर अनुमान कर लेते हैं तो कोई उसे प्रत्यक्ष भी जानता है। उसी प्रकार सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को हम अनुमान से जानते हैं तो कोई उन्हें प्रत्यक्ष भी जान सकता है। इस प्रकार सामान्य से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती है।।५।। स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ।।६।। देवागम स्तोत्र हे भगवन्! वह वीतरागी और सर्वज्ञ आप ही हो, क्योंकि आपकी वाणी युक्ति और शास्त्रों से अविरोधी है। जो कुछ भी आपने कहा है वह प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध प्रमाणों से बाधित नहीं होता है, अतः आपकी वाणी अविरोधी कही गईहै।।६।। त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ हे भगवन्! आपके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तमत रूपी अमृत से पृथक् जो सर्वथा एकान्तवादी लोग हैं, वे आप्ताभिमान से दग्ध हैं अर्थात् वे आप्त न होने पर भी 'मैं आप्त हूँ ऐसा मान बैठे हैं। वस्तुतः वे आप्त नहीं हो सकते, क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित है।।७।। कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपरवेरिषु ।।८।। हे नाथ! जो लोग एकान्त के आग्रह में रक्त हैं अथवा एकान्तरूपी पिशाच से आधीन हैं, वे स्व और पर दोनों के ही शत्रु (बुरा करने वाले) हैं, क्योंकि उनके मत में शुभाशुभकर्म एवं परलोक आदि कुछ व्यवस्थित सिद्ध नहीं होते हैं।।८॥ भावैकान्ते पदार्थाना मभावानामपहवात्। सर्वात्मकमनाद्यन्त - मस्वरूपमतावकम्॥९॥ हे भगवन्! पदार्थों का सर्वथा सद्भाव ही मानने पर अभावों का अभाव (लोप) मानना होगा। इस प्रकार अभावों को नहीं मानने से सब पदार्थ सर्वात्मक हो जावेंगे,सभी अनादि व अनन्त हो जावेंगे, किसी का कोई पथक स्वरूप ही नरहेगा; जो कि आपको स्वीकार नहीं है।।९।। 33

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