________________
३८
तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
षट् कारक
दशा में, छहों कारक रूप स्वयं परिणमन करते हैं, दूसरे कारकों की (निमित्त कारणों की) अपेक्षा नहीं रखते।
कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने अपने ‘पंचास्तिकाय' नामक महाग्रन्थ में इसका उल्लेख किया है। पंचास्तिकाय की ६२वीं गाथा की टीका लिखते हुए अमृतचन्द्राचार्यदेव ने खूब खुलासा किया है, जो इस प्रकार है :
(१) पुद्गल स्वतंत्ररूप से द्रव्यकर्म को करता होने से पुद्गल स्वयं ही कर्ता है; (२) द्रव्यकर्म को प्राप्त करता होने से द्रव्यकर्म कर्म है, अथवा द्रव्यकर्म से स्वयं अभिन्न होने से पुद्गल स्वयं ही कर्म (कार्य) है; (३)स्वयं द्रव्यकर्म रूप परिणमित होने की शक्तिवाला होने से पुद्गल स्वयं ही करण है; (४) अपने को द्रव्यकर्म रूप परिणाम देता होने से पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है; (५) अपने में से पूर्व परिणाम का व्यय करके द्रव्यकर्म रूप परिणाम करता होने से तथा पुद्गल द्रव्यरूप से ध्रुव रहता होने से पदगल स्वयं ही अपादान है; (६) अपने में अर्थात् अपने आधार से द्रव्यकर्म करता होने से पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है।
उसी प्रकार (१) जीव स्वतंत्र रूप से जीवभाव को करता होने से जीव स्वयं ही कर्ता है; (२) जीवभाव को प्राप्त करता होने से जीवभाव कर्म है अथवा जीवभाव से स्वयं अभिन्न होने से जीव स्वयं ही कर्म है; (३) स्वयं जीवभाव रूप से परिणमित होने की शक्तिवाला होने से जीव स्वयं ही करण है; (४) अपने को जीवभाव देता होने से जीव स्वयं ही सम्प्रदान है; (५) अपने में पूर्व भाव का व्यय करके (नवीन) जीवभाव करता होने से और जीवद्रव्य रूप से ध्रुव रहने से जीव स्वयं ही अपादान है; (६) अपने में अर्थात् अपने आधार से जीवभाव करता होने से जीव स्वयं ही अधिकरण है।
कर्म वास्तव में स्वयं ही षट्कारक रूप परिणमित होता है इसलिए अन्य कारकों (अन्य के षट्कारकों) की अपेक्षा नहीं रखता। इसी प्रकार जीव षट्कारक रूप परिणमित होता है इसलिए अन्य के षटकारकों की अपेक्षा नहीं रखता; इसलिए निश्चय से कर्म का कर्ता जीव नहीं है और जीव का कर्ता कर्म नहीं है।
निश्चय से पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मयोग्य पुद्गल स्कंधों रूप परिणमित होता है और जीव द्रव्य भी अपने औदयिकादि भावों रूप स्वयं परिणमित होता है। दोनों के कारक एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं
अतः किसी द्रव्य के कारकों को किसी अन्य द्रव्य के कारकों की अपेक्षा नहीं होती। जिज्ञासु -
इसके जानने से क्या लाभ है? प्रवचनकार -
स्पष्ट है कि जहाँ तक श्रद्धा में इस मान्यता का सद्भाव है कि 'अन्य द्रव्य तद्भिन्न अन्य द्रव्य की उत्पाद-व्यय रूप क्रियापरिणति का कर्ता आदि होता हैं' वहीं तक मिथ्यात्व दशा है। तथा जहाँ से श्रद्धा में उसका स्थान वस्तुभूत यह विचार ले लेता है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणति का कर्ता आदि
आप स्वयं है, यह आत्मा अपने अज्ञानवश संसार का पात्र आप स्वयं बना हुआ है और अपने पुरुषार्थ द्वारा उसका अन्त कर आप स्वयं मोक्ष का पात्र बनेगा', वहीं से आत्मा की सम्यग्दर्शन रूप अवस्था का प्रारंभ होता है और इस आधार से जैसे-जैसे चारित्र में परनिरपेक्षता आकर स्वावलंबन में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे सम्यग्दृष्टि का उक्त विचार आत्मचर्या का रूप लेता हुआ परम समाधि दशा में परिणत हो जाता है। अतएव अन्य द्रव्य तद्भिन्न अन्य द्रव्य की क्रियापरिणति का कर्ता है, कर्म है, करण है, सम्प्रदान है, अपादान है, अधिकरण है, यह व्यवहार से ही कहा जाता है; निश्चय से तो प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणति का स्वयं कर्ता है, स्वयं कर्म है, स्वयं करण है, स्वयं संप्रदान है, स्वयं अपादान है और स्वयं अधिकरण है; यही सिद्ध होता है।
अनादिकाल से यह जीव निश्चय षट्कारक को भूलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र व्यवहार षट्कारक का अवलम्बन करता आ रहा है, इसलिये वह संसार का पात्र बना हुआ है; जब वह निश्चय षटकारक का यथार्थ निर्णय करके पुरुषार्थ द्वारा अपना त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर शुद्धात्मानुभूति प्रगट करता है तब मोक्षमार्ग का प्रारंभ होता है । अतः जीवन संशोधन में निश्चय षट्कारक का सम्यग्ज्ञान करना कार्यकारी है।
यहाँ यह कहा गया है कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है। अतः शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए सामग्री (बाह्य
20