Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 22
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग - २ पूर्व परम्परागत प्राप्त जैन साहित्य में आचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा रचित षट्खण्डागम सर्वाधिक प्राचीन रचना है। इसमें प्रथम खण्ड में जीव की अपेक्षा से और शेष खण्डों में जीवों और कर्मों के सम्बन्ध से अन्य अनेक विषयों का विवेचन हुआ है। इसी को लक्ष्य में रखकर नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार की रचना की और उसे जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड दो भागों में विभाजित किया। गोम्मटसार में षट्खण्डागम का पूर्ण सार आ गया है। गोम्मटसार ग्रन्थ पर मुख्यतः चार टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक हैं - अभयचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका 'मंदप्रबोधिका' जो जीवकाण्ड की गाथा ३८३ तक ही पाई जाती है। दूसरी केशववर्णी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' है जो सम्पूर्ण गोम्मटसार पर विस्तृत टीका है और जिसमें 'मंदप्रबोधिका' का पूरा अनुसरण किया गया है। तीसरी है - नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' जो पिछली दोनों टीकाओं का पूरापूरा अनुसरण करती हुई सम्पूर्ण गोम्मटसार पर यथेष्ट विस्तार के साथ लिखी गई है और चौथी है पण्डित टोडरमल की भाषा टीका 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' जिसमें संस्कृत टीका के विषय को खूब स्पष्ट किया गया है। उन्हीं का अनुसरण कर हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के अनुवादों का निर्माण हुआ है। गोम्मटसार ग्रन्थ जैन विद्यालयों का नियमित पाठ्यग्रन्थ है। इसके जीवकाण्ड नामक महाधिकार के प्रथम अधिकार में गुणस्थानों की चर्चा विशद् रूप से की गई है। यह पाठ उसी को ध्यान में रखकर लिखा गया है। गुणस्थानों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी के लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड का अध्ययन किया जाना चाहिए। ४२ १ नेमिचंद्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य से भिन्न हैं। 22 चतुर्दश गुणस्थान चतुर्दश गुणस्थान सब जीवों के पाँचों भावों में से यथासंभव किन्हीं के दो, किन्हीं के तीन, किन्हीं के चार और किन्हीं के पाँचों ही भाव होते हैं। ये हैं - (१) औपशमिक (२) क्षायिक (३) क्षायोपशमिक (४) औदयिक और (५) पारिणामिक। ये जीवों के निज भाव हैं। इनमें प्रारम्भ के चार भाव निश्चय नय से स्वयं जीवकृत होने पर भी व्यवहार नय से यथायोग्य कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदय को निमित्तकर होते हैं, इसलिए इनकी औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये संज्ञाएँ सार्थक हैं; तथा प्रत्येक जीव के अनादिनिधन, एकरूप, कर्मोंपाधिनिरपेक्ष, सहज स्वभाव की 'परिणाम' संज्ञा है और ऐसा परिणाम ही पारिणामिक भाव कहलाता है। प्रकृत में 'गुण' शब्द द्वारा इन्हीं भावों का ग्रहण हुआ है। मात्र मोह और योग निमित्तक इन्हीं भावों के (गुणों के) तारतम्य से जो चौदह 'स्थान' बनते हैं, उनको चौदह गुणस्थान कहते हैं। वे निम्न प्रकार हैं: (१) मिथ्यात्व (२) सासादन (३) मिश्र (४) अविरत सम्यक्त्व (५) देशविरत ( ६ ) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण ( ९ ) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसाम्पराय (११) उपशान्तकषाय (१२) क्षीणकषाय (१३) संयोगीकेवली जिन (१४) अयोगकेवली जिन । (१) मिथ्यात्व मिथ्या पद का अर्थ वितथ, व्यलीक, विपरीत, और असत्य है । जिन जीवों की प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थ विषयक श्रद्धा असत्य होती है, उनके समुच्चय रूप उस भाव को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। जैसे पित्तज्वर से पीड़ित जीव को मधुर रस नहीं रुचता, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यक् १. मिच्छो सासन मिस्सो, अविरद सम्मोय देशविरदोय । विरदा पमत्त इदरो, अपुव्व अणियट्ठि सुमो य ।। ९ ।। उवसंत खीणमोहो, सजोग केवलि जिणो अयोगीय । चउदस जीव समासा, कमेण सिद्धा य णादव्वा ।। १० ।। - गोम्मटसार जीवकाण्ड

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