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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
आत्मानुभूति और तत्वविचार
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यह ज्ञानमय दशा आनन्दमय भी है, यह ज्ञानानन्दमय है। इसमें ज्ञान और आनन्द का भेद नहीं है। यह ज्ञान भी इन्द्रियातीत है और आनन्द भी इन्द्रियातीत । यह अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द की दशा ही धर्म है। अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुवतत्त्व पर सम्पूर्ण प्रगट ज्ञानशक्ति का केन्द्रीभूत हो जाना धर्म की दशा है। अतः एक मात्र वही ज्ञानानंद स्वभावी ध्रुवतत्त्व ध्येय है, साध्य है, और आराध्य है; तथा मुक्ति के पथिक तत्त्वाभिलाषी को समस्त जगत अध्येय, असाध्य, और अनाराध्य है।
यह चैतन्यभावरूप आत्मानुभूति ही करने योग्य कार्य (कर्म) है; पर की किसी भी प्रकार की अपेक्षा बिना चेतन आत्मा ही इसका कर्ता है और यही धर्मपरिणति रूप ज्ञानचेतना सम्यक् क्रिया है। इसमें कर्ता, कर्म और क्रिया का भेद कथनमात्र है, वैसे तो तीनों ही ज्ञानमय होने से अभिन्न (अभेद) ही हैं।
धर्म का आरम्भ भी आत्मानुभूति से ही होता है और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म है। साधक के लिये एक मात्र यही इष्ट है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है।
उक्त प्रयोजन की सिद्धि हेतु जिन वास्तविकताओं की जानकारी आवश्यक है, उन्हें प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं तथा उनके सम्बन्ध में किया गया विकल्पात्मक प्रयत्न ही तत्त्वविचार कहलाता है। ___ 'मैं कौन हूँ ?' (जीव तत्त्व), 'पूर्ण सुख क्या है ?' (मोक्ष तत्त्व), इस वैचारिक प्रक्रिया के मूलभूत प्रश्न हैं। मैं सुख कैसे प्राप्त करूँ अर्थात् आत्मा अतीन्द्रिय-आनन्द की दशा को कैसे प्राप्त हो? जीव तत्त्व मोक्ष तत्त्वरूप किस प्रकार परिणमित हो ? आत्माभिलाषी मुमुक्षु के मानस में निरंतर यही मंथन चलता रहता है।
यह विचारता है कि चेतन तत्त्व से भिन्न जड़ तत्त्व की सत्ता भी लोक में है। आत्मा में अपनी भूल से मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है तथा शुभाशुभ भावों की परिणति में ही यह आत्मा उलझा (बंधा) हुआ है। जब तक आत्मा अपने स्वभाव को पहिचान कर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता तब तक मुख्यतः मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी। इनकी उत्पत्ति रुके, इसका एक मात्र उपाय उपलब्ध ज्ञान का आत्म-केन्द्रित हो जाना है। इसी से शुभाशुभ भावों
का अभाव होकर वीतराग भाव उत्पन्न होगा और एक समय वह होगा कि समस्त मोह-राग-द्वेष का अभाव होकर आत्मा वीतराग-परिणति रूप परिणत हो जायगा । दूसरे शब्दों में पूर्ण ज्ञानानन्दमय पर्याय रूप परिणमित हो जायेगा।
उक्त वैचारिक प्रक्रिया ही तत्त्वविचार की श्रेणी है। स्वानुभूति प्राप्त करने की प्रक्रिया निरंतर तत्त्वमंथन की प्रक्रिया है। किन्तु तत्त्वमंथन रूप विकल्पों से भी आत्मानुभूति प्राप्त नहीं होगी क्योंकि कोई भी विकल्प ऐसा नहीं जो आत्मानुभूति को प्राप्त करा दे। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त जगत् पर से दृष्टि हटानी होगी। समस्त जगत् से आशय है कि आत्मा से भिन्न शरीर, कर्म आदि जड़ (अचेतन) द्रव्य तो पर हैं ही, अपने आत्मा को छोड़कर अन्य चेतन पदार्थ भी पर हैं तथा आत्मा में प्रति समय उत्पन्न होने वाली विकारीअविकारी पर्यायें (दशा) भी दृष्टि का विषय नहीं हो सकती। उनसे भी परे अखण्ड त्रिकाली चैतन्य ध्रुव आत्मतत्त्व है, वही एक मात्र दृष्टि का विषय है, जिसके आश्रय से आत्मानुभूति प्रगट होती है, जिसे कि धर्म कहा जाता है।
दूसरे शब्दों में रङ्ग, राग और भेद से भी परे चेतनतत्त्व है। रङ्ग माने पुद्गलादि पर पदार्थ, राग माने आत्मा में उठने वाले शुभाशुभ रूप रागादि विकारी भाव, और भेद माने गुण-गुणी भेद व ज्ञानादि गुणों के विकास सम्बन्धी तारतम्य रूप भेद; इन सबसे परे ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुवतत्त्व है, वही एक मात्र आश्रय योग्य तत्त्व है। उसके प्रति वर्तमान ज्ञान के उघाड़ का सर्वस्व समर्पण ही आत्मानुभूति का सच्चा उपाय है।
प्रश्न यह नहीं है कि आपके पास वर्तमान प्रगटरूप कितनी ज्ञान शक्ति है? प्रश्न यह है कि क्या आप उसे पूर्णतः आत्म-केन्द्रित कर सकते हैं? स्वानुभूति के लिए स्वस्थ मस्तिष्क व्यक्ति को जितना ज्ञान प्राप्त है, वह पर्याप्त है। पर प्रगट ज्ञान का आत्म-स्वभाव के प्रति सर्वस्व समर्पण एक अनिवार्य तत्त्व (शर्त) है, जिसके बिना आत्मानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती। यदि प्रयोजनभूत तत्त्वों का विकल्पात्मक सच्चा निर्णय हो गया हो तो अप्रयोजनभूत बहिर्लक्ष्यी ज्ञान की हीनाधिकता से कोई अन्तर नहीं पड़ता, पर एक (आत्म) निष्ठता अति आवश्यक है।
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