Book Title: Tattvagyan Pathmala Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ २८ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ पाठ ५ आत्मानुभूति और तत्त्वविचार जानना।" जिज्ञासु निमित्त-उपादान के झगड़े में हम पड़ें ही क्यों? इसे न जानें तो क्या हानि है और जानने में क्या लाभ है ? प्रवचनकार - निमित्त-उपादान का सही स्वरूप समझना झगड़ना नहीं है। एक को दूसरे का कर्ता मानना झगड़ा है। इसी झगड़े के कारण जीव दुःखी हैं। निमित्तउपादान का सही स्वरूप समझने से यह झगड़ा समाप्त हो जायगा। उपादान-निमित्त का सही ज्ञान न होने पर व्यक्ति अपने द्वारा कृत कार्यों (अपराधों) का कर्तृत्व निमित्त पर थोप कर स्वयं निर्दोष बना रहना चाहता है। पर जैसे चोर स्वयंकृत चोरी का आरोप चांदनी रात के नाम पर मढ़ कर दंडमुक्त नहीं हो सकता; उसी प्रकार आत्मा भी अपने द्वारा कृत मोह-राग-द्वेष भावों का कर्तृत्व कर्मों पर थोप कर दुःख मुक्त नहीं हो सकता है। उक्त स्थिति में स्वदोष दर्शन और आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति की ओर दृष्टि तक नहीं जाती है। __इसकी यथार्थ समझ से पर-कर्तृत्व का अभिमान दूर हो जाता है । पराश्रय के भाव के कारण उत्पन्न दीनता-हीनता का अभाव हो जाता है। प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का भान होता है और स्वावलम्बन का भाव जागता है। पर पदार्थों के सहयोग की आकांक्षा से होने वाली व्यग्रता का अभाव होकर सहज स्वाभाविक शान्त दशा प्रगट होती है। अब समय हो गया है। आज जो बताया है उस पर गम्भीरता से विचार करना ! तुम्हारा कल्याण होगा!! प्रश्न१. उपादान किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का होता है ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। २. निमित्त किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का होता है ? प्रेरक निमित्त से क्या आशय है ? ३. किसी एक कार्य पर उपादान-उपादेय और निमित्त-नैमित्तिक घटाकर समझाइए। ४. उपादान-निमित्त के जानने से क्या लाभ है? 'सुख क्या है?' और 'मैं कौन हूँ?' इन प्रश्नों का सही उत्तर प्राप्त करने का एक मात्र उपाय आत्मानुभूति है तथा आत्मानुभूति प्राप्त करने का प्रारंभिक उपाय तत्त्वविचार है। पर आत्मानुभूति अपनी आरम्भिक भूमिका तत्त्वविचार का भी अभाव करती हुई उदित होती है क्योंकि तत्त्वविचार विकल्पात्मक है और आत्मा निर्विकल्पक स्वसंवेद्य तत्त्व है। निर्विकल्पक तत्त्व की अनुभूति विकल्पों द्वारा नहीं की जा सकती है। उक्त तथ्य 'सुख क्या है? और 'मैं कौन हूँ' नामक निबंधों में स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ तो विचारणीय प्रश्न यह है कि आत्मानुभूति की दशा क्या है और तत्त्वविचार किसे कहना? ___ अन्तरोन्मुखी वृत्ति द्वारा आत्मसाक्षात्कार की स्थिति का नाम ही आत्मानुभूति है। वर्तमान प्रगट ज्ञान को पर-लक्ष्य से हटा कर स्वद्रव्य (त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व) में लगा देना ही आत्मसाक्षात्कार की स्थिति है। वह ज्ञानतत्त्व से निर्मित होने से, ज्ञानतत्त्व की ग्राहक होने से और सम्यग्ज्ञान-परिणति की उत्पादक होने से ज्ञानमय है। अतः वह आत्मानुभूति ज्ञायक, ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञप्ति रूप होकर भी इनके भेद से रहित अभेद और अखण्ड है। तात्पर्य यह है कि जानने वाला भी स्वयं आत्मा है और जानने में आने वाला भी स्वयं आत्मा ही है तथा ज्ञान परिणति भी आत्मामय हो रही है। १. तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १, पाठ ५ २. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग ३, पाठ ५ 15

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