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अध्याय - २)
तपागच्छ का इतिहास
भाग-१, खंड - १ (आचार्य जगच्चन्द्रसूरि से आचार्य मुनिसुन्दरसूरि तक) निम्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में तपागच्छ का स्थान आज तो सर्वोपरि जैसा है। इस गच्छ की परम्परानुसार बृहद्गच्छीय आचार्य मणिरलसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि हुए, जिन्होंने अपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार के कारण चैत्रगच्छीय आचार्य धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रगणि के पास उपसम्पदा ग्रहण की एवं १२ वर्षों तक निरंतर आयंबिल तप किया जिससे प्रभावित होकर आघाटपुर के शासक जैत्रसिंह ने उन्हें वि०सं० १२८५/ई०स० १२२९ में 'तपा' विरुद् प्रदान किया। आगे चलकर उनकी शिष्य संतति तपागच्छीय कहलायी।'
तपागच्छ में आचार्य देवेन्द्रसूरि, विजयचन्द्रसूरि, धर्मघोषसूरि, सोमप्रभसूरि, सोमतिलकसूरि, देवसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसुरि, मुनिसुन्दरसूरि, हेमविमलसूरि, आनन्दविमलसूरि, विजयदानसूरि, हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि, विजयदेवसूरि, उपा० यशोविजय जी तथा वर्तमानयुग में आचार्य विजयानन्दसूरि, आचार्य विजयधर्मसूरि, शासनसम्राट आचार्य विजयनेमिसूरि, आचार्य नेमिसूरि, आचार्य सागरानन्दसूरि, आचार्य बुद्धिसागरसूरि, आचार्य विजयसिद्धिसूरि, आचार्य लब्धिसूरि, आचार्य विजयवल्लभसूरि आदि अनेक विद्वान् और प्रभावक मुनिजन हो चुके हैं तथा आज भी अनेक प्रभावशाली और साहित्यरसिक मुनिजन विद्यमान हैं। इन्होंने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं, ज्ञानभंडारों की स्थापना, तीर्थयात्रा, तीर्थक्षेत्रों के जीर्णोद्धार एवं जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि कार्यों द्वारा पश्चिमीभारत विशेषकर महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान एवं दिल्ली
और पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज को जीवन्त एवं समुन्नत बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है जो आज भी जारी है।
अन्य गच्छों की भाँति तपागच्छ से भी समय-समय पर विभिन्न उपशाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें बृहद्पौशालिकशाखा, कमलकलशशाखा, कुतुबपुराशाखा, लघुपौशालिक अपरनाम सोमशाखा, राजविजयसूरिशाखा अपरनाम रत्नशाखा, सागरशाखा, विमलशाखा, विजयशाखा आदि प्रमुख हैं।
तपागच्छ के इतिहास के अध्ययन में स्त्रोत के रूप में इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, उनकी प्रेरणा से या स्वयं उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की प्रतिलिपि या दाता प्रशस्तियाँ तथा बड़ी संख्या में पट्टावलियां मिलती हैं। इसी प्रकार इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित बहुत बड़ी संख्या में सलेख जिनप्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जो
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