Book Title: Tapa Sadhna aur Aaj ki Jivanta Samasyao ke Samadhan Author(s): Rajiv Prachandiya Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 7
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जहाँ किसी भी प्रकार का व्यामोह / ममत्व का अवसर न मिलता हो तथा ध्यान-साधना में किसी भी प्रकार का विघ्न- व्यवधान उत्पन्न न होता हो। कौन-कौन से स्थान साधुओं के ठहरने और न ठहरने के योग्य हैं, जैनागम में इसका विशद् विवेचन हुआ है। 50 निश्चय ही इस तप द्वारा साधक असद्वृत्तियों से हटकर सद्वृत्तियों में अपने मन-वचन और शरीर को तन्मय करता हुआ सुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत कर सकता है । काम-वासना, अहं भावना, क्रोध- ज्वाला, कपट, छल, प्रवंचना, तथा दूसरों के धन-सम्पत्ति हड़पने की प्रक्रिया की वह्नि जो आज प्रज्वलित है जिससे परिवारसमाज-राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्थिरता असामा जिकता तथा अराजकता आतंकवादिता का शोर-शराबा परिलक्षित है, शान्त शमन हो सकती है । तपःसाधना के छठवें क्रम तक पहुँचकर साधक को यह अनुभव होने लगता है कि जीवन जीने का लक्ष्य मात्र उदरपूर्ति के साधन उपकरण जुटाने / एकत्रित करने अर्थात् इन्द्रियजन्य व्यापारों में खपाने की अपेक्षा आत्म-शोधनविकास में ही होना श्रेयस्कर एवं सार्थक है। साधना के । प्रथम चार चरण आहार त्याग से सम्बन्धित है क्योंकि बिना आहार-शुद्धि के शरीर शुद्धि और तज्जन्य चित्त-शुद्धि का होना नितान्त असम्भव है । शेष दो चरणों में शरीर की शुचिता पर बल दिया गया है जिससे मन विकृति से हटकर निवृत्ति की ओर उन्मुख होता हुआ साधना-पथ पर नैरन्तर्य आगे बढ़ने को प्रवृत्त हो सके । ७. प्रायश्चित प्रमाद अथवा अज्ञानता में हुए पापों / अपराधों / दोषों / भूलों का संशोधन / शुद्धीकरण / निराकरण / परिहार तथा भविष्य में इन कार्यों की पुनरावृत्ति न होने देने का स्वकृत सकल्प, प्रायश्चित्त तप कहलाता है 161 यह आभ्यन्तर तप का प्रथम चरण है । इस तप से साधक में आर्जव गुण अर्थात् मनसा वाचा कर्मणा में एकरूपता, समरसता का संचार होता है । साधक शनैः-शनैः साधनापथ में निर्बाध रूप से आगे बढ़ता जाता है अर्थात् शुद्ध-निर्मल- पवित्र सरल स्वभावी हो जाता है अर्थात् बाहर-भीतर की अन्तर १६ | चतुर्थ खण्ड जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य -- रेखा मिट समिट जाती है । जो वह भीतर है, वही बाहर और जो बाहर है, वही भीतर उसका आचरण दर्पण सन धवल - उज्ज्वल रहता है । जब व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूपगुणों का चिन्तवन करता है, तो प्रायश्चित्तप्रवृत्ति उसमें उद्भूत होती है, वह सहज भाव से किये गये दोषों का परिहार करने के लिये सदा तत्पर रहता है । निश्चय ही यह तप पापमुक्ति का मार्ग प्रदर्शक है। दोष निवारण के अनेक साधन उपाय होने के कारण जैनागम में इस तप के अनेक भेद-प्रभेव स्थिर किये हैं जिनकी संख्या कहीं पर भी है तो कहीं पर दस 3 और कहीं-कहीं पर नौ व दस दोनों ही दृष्टव्य है 164 इस प्रायश्चित्त तप की उपयोगिता को देखते हुए बड़ेबड़े साधु-सन्त, ऋषि- आचार्यों ने इसे अपने दैनिक जीवन का एक अंग बनाया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसे प्रबुद्ध सन्तों की दैनिक डायरी का निरन्तर उपयोग इसका स्पष्ट प्रमाण है । आज के कृत्रिमता व्यस्तता से अनुप्राणित तथा छोटे-बड़े विभिन्न अपराधों से संयुक्त जीवन में यदि कोई भी व्यक्ति प्रत्येक दिन किसी भी क्षण अथवा सोने से पूर्व अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों के लेखे-जोसे को समभाव अथवा निर्लिप्त भाव से निहारे अर्थात् प्रायश्चित्त तप को अपनाये तो निश्चित ही वह व्यक्ति साधारण से साधारण और जघन्य से जघन्य अपराध-मूलों को भविष्य में न करने का संकल्प लेगा तथा तदनुरूप अपनी दैनिक चर्चा का संचा लन करेगा | यह प्रायश्चित्त भाव अपराधियों को एक बार पुनः सादगीपूर्ण जीवन जीने का मार्ग प्रस्तुत करता है। इसलिये समय-समय पर सन्त मनीषियों ने जेलों में, अपराधी स्थलियों में जा-जाकर अपराधियों का हृदय परिवर्तन कराया, उन्हें सम्यक् साधना का उद्बोधन दिया और ज्ञान दिया जाग्रत जीवन-चर्चा जीने का । निःसन्देह यदि यह प्रायश्चित्त भाव जन-जन तक पहुंचे, इसकी उपयोगिता उपादेयता को बताया जाय तो जो आज अपराध अपराधी दिन प्रतिदिन नये-नये रूपों में जन्म ले रहे हैं, विकसित अथवा पनप रहे हैं, वे समूल नष्ट-विनष्ट हो जायेंगे और एक अपराधी जीवन सादगी- मर्यादा - कर्तव्यपरायणतादि से युक्त संयुक्त होगा । निश्चय ही यह प्रायश्चित्त तप की व्यावहारिक उपयोगिता कहलाएगी।Page Navigation
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