Book Title: Tapa Sadhna aur Aaj ki Jivanta Samasyao ke Samadhan
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) त पः सा ध ना औ र आ ज जी व न्त समस्या ओं के स मा धान -राजीव प्रचंडिया ( एडवोकेट ) आज हम और हमारा विकास के उत्तुङ्ग शिखर पर को जन्म देते हैं, रागद्वेषात्मक प्रवृत्तियां इनसे उद्भूत होती है, नये-नये उपकरण, आधुनिक अत्याधुनिक साधन-प्रसाधन हैं। जब हमारा जीवन इन दूषित वृत्तियों में सिकुड़-सिमट हमने ईजाद/हासिल किये हैं। आज हमारे पास सब कुछ है, कर रह जाता है तब जीवन में बसन्त नई किन्तु इस सब कुछ में हमारे बीच जो होना चाहिये, वह आना होता है, आज व्यक्ति/समाज/राष्ट्र-अन्तर्राष्ट्र में चारों नहीं है, यह एक बिडम्बना है। स्थायी सुख-शान्ति ओर जो पतझड़ छा रहा है दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण, अर्थात् आनन्द से हम प्रायः वंचित हैं। वह आनन्द जो न उसका मूल कारण है हम तपः साधना से हटकर भोगकभी समाप्त होने वाला अक्षय कोष/निधि है, जो हमें वासना की दिशा में भटक रहे हैं। यह निश्चित है कि तुप मोक्ष के द्वार अर्थात् मुक्ति के पार पर ला खड़ा करता है, से जीवन में बसंत आता है और भोग से पतझड़। तपःसाधना हमसे न जाने कहाँ गुम हो गया है और हाथ आये हैं मात्र जीवन को नम्रता, वत्सलता, दया, प्रेम, वसुधैव कुटुम्बकम् आकर्षण-विकर्षण के रंग-बिरंगे परिधान, नष्ट होने वाली की आस्था, सहनशीलता-सहिष्णता, क्षमादिक उदात्त नाना प्रकार की सम्पदायें, बोलती-अबोलती आपदायें- भावनाओं/मानवीय गुणों से अभिसिंचित करती है जबकि विपदायें जिनसे सारा का सारा जीवन बाह्य/संसारी प्रभावों भोग में अहंकारिता, कटुता, द्वेष, घृणा, स्वार्थ, संघर्ष, में घिर/उलझ जाता है अर्थात् संसार-सागर में डूबता- संकीर्णतादिक अमानवीय/घातक तत्वों का समावेश रहता उतराता रहता है । फलस्वरूप सहजता की ओट में कृत्रि- है। निश्चय ही तप:साधना में तृप्ति है, जबकि भोगमता मकड़जाल सदृश अपना ताना-बाना बुनने लगती है वासना में वृत्ति है, विकास है कामनाओं का । जितने भोग और हम सब कृत्रिममय होने की होड़ में आज व्यस्त हैं, वासनाओं के हेतु, उपकरण, साधन-सुविधाएँ जुटायीं जाएगी, अस्तु त्रस्त-संत्रस्त हैं। यह सच है, कृत्रिम जीवन से जीवन अतृप्ति उतनी ही अधिक उद्दीप्त होगी, तब जीवन में में तनाव आता है । तनावों से संपृक्त जीवन में असलियत बसन्त अर्थात् अनन्त आनन्द नहीं, अपितु पतझड़ अर्थात् की अपेक्षा दिखावटपने का अश लगभग शत-प्रतिशत बना विभिन्न काषायिक भाव जो हमारे अस्तित्व, यथार्थ स्वरूपरहता है । एक अजीब प्रकार की घुटन, बैचेनी, उकताहट, स्वभाव को धूमिल किये हुए हैं, परिलक्षित/विकसित होंगे। एक दूसरे में अविश्वास के दौर से हम संसारी जीव बाहर ऐसी स्थिति-परिस्थिति में तप की उपयोगिता-उपादेयता कुछ-भीतर कुछ में जीने लगते हैं। ये कुछ ही तो विकृतियों असंदिग्ध है। ९० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ Hiiiiii tititititi m प्रस्तुत आलेख में 'तपःसाधना और आज की जीवन्त आचार-विचार, इतिहास, संस्कृति, कला-विज्ञान, भूगोल, समस्याओं के समाधान' नामक विशद किन्तु परम उपयोगी खगोल-ज्योतिष आदि विविध पक्षों का तलस्पर्शी विवेचन एवं सामयिक विषय पर संक्षेप में चिन्तन करना हमारा हुआ है, वहाँ साधना-पक्ष में तपःसाधना की विवेचना भी मूल अभिप्रेत है। सूक्ष्म तथा तर्कसंगतता लिये हुए है। जैनदर्शन के तप की भारतीय संस्कृति-वैदिक, बौद्ध तथा जैन-सभी में स्वरूप-पद्धति अन्य दर्शनों की तपःसाधना से सर्वथा संसारी जीव के अन्तःकरण की शुद्धता/पवित्रता तथा मोक्ष भिन्नता रखती है। बौद्ध धर्म में तप की श्रेष्ठता-निकृष्टता प्राप्ति कर्ममुक्ति पर अत्यधिक बल दिया है अर्थात् जीवन पर वैदिक धर्म में तप तेजस् के अर्थ में, साधना के रूप में तथा स्वरूप और ध्येय की दृष्टि से विशद विवेचना का लक्ष्य ज्ञान-ध्यान-तप पर केन्द्रित किया गया है। तप की गई है जबकि जैत धर्म में आत्मविकास में सहायक तप भारतीय साधना का प्राण-तत्त्व है क्योंकि उससे व्यक्ति का की प्रत्येक क्रिया पर अर्थात् तप के समस्त अंगों पर वैज्ञाबाहर-भीतर समग्र जीवन परिष्कृत/परिशोधित होता हुआ निक विश्लेषण हुआ है। जैन दर्शन निवृत्तिपरक होने के उस चरम बिन्दु पर पहुंचता है जहाँ से व्यक्ति, व्यक्ति नहीं फलस्वरूप हठयोग अर्थात् तन-मन की विवशता, उस पर रह जाता है अपितु परमात्म अवस्था अर्थात् परमपद/ बलात् कठोरता के अनुकरण की अपेक्षा सर्वप्रथम साधना सिद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। तप की इस महिमा-गरिमा की भावभूमि को तैयार कर तन/शरीर को तदनुरूप किया को देखते हुए वेद-आगम-पिटक सभी एक स्वर से तप को जाता है। अनवरत अभ्यास साधना की यह प्रक्रिया शनैः भौतिक सिद्धि-समृद्धि का प्रदाता ही नहीं अपितु आध्यात्मिक शनैः बाह्य और अन्तःकरण को परिमार्जित करती हुई तेज-शक्ति-समृद्धि का प्रदाता भी स्वीकारते हैं । तपःसाधना साधक को तप-साधना में प्रवेश हेतु प्रेरणा प्रदान करती है। से लब्धि-उपलब्धि, ऋद्धि-सिद्धि, तेजस् शक्तियां, अगणित यहाँ इस साधना में शरीर-कृशता की अपेक्षा कार्मिक-कषायों विभूतियाँ सहज ही प्रकट होने लगती हैं। अर्थात् तप से की कृशता पर मुख्य रूप से बल दिया गया है क्योंकि सर्वोत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है । इस जगत में ऐसा जिस तप से आत्मा का हित नहीं होता, वह कोरा शारीरिक कोई पदार्थ नहीं है जिसकी प्राप्ति तप से द्वारा न हो सके। तप निश्चय ही निस्सार है।13 जैन दर्शन की मान्यता है तप से प्राणी संसार में विजयश्री एवं समृद्धि प्राप्त कर, कि संसारी जीव राग-द्वेषादिक/काषायिक भावों अर्थात् संसार की रक्षा कर सकता है। संसार की कोई भी शक्ति विविध कर्मों से जकड़ा होने के कारण अपने आत्मस्वरूपतपस् तेज के सम्मुख टिक नहीं सकती। वास्तव में तप स्वभाव (अनन्त दर्शन-ज्ञान, अनन्त आनन्द-शक्ति आदि) मंगलमय है, कल्याणकारी है, सुख प्रदाता है। वह समस्त को विस्मरण कर अनादिकाल से एक भव/योनि से दूसरे बाधाओं, अरिष्ट उपद्रवों को शमन करता हुआ क्षमा, भव/योनि में अर्थात् अनन्त भवों/योनियों में इस संसारशान्ति, करुणा, प्रेमादिक दुर्लभ गुणों को प्राप्त कराता चक्र में परिभ्रमण करता हुआ अनन्न दु:खों संक्लेशोंहआ मोक्ष-पुरुषार्थ को सिद्ध कराता है, अस्तु, वह लौकिक- विकल्पों में जीता है, अत: दुःखों से निवृत्ति कर्मबन्ध से मुक्ति अलौकिक दोनों ही हित का साधक है।' निश्चय ही तप के अर्थात आत्म-विकास हेतु/मोक्ष प्राप्त्यर्थ साधना का निरूपण द्वारा हर प्राणी/जीव, आत्मस्वरूप के दर्शन कर आनन्द को जैन दर्शन का मुख्य लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य हेतु जो अनुभूति करता है। तपःसाधना व्यक्ति को स्थूल से सूक्ष्म साधना की जाती है, वह साधना वस्तुतः तप कहलाती की ओर, बहिर्जगत से अन्तर्जगत की ओर ले जाने में है। नारकी-तिर्यञ्च-देवों-मनुष्यों में मात्र मनुष्य ही तप प्रेरणा-स्फुति का संचार करती है, क्योंकि बाहर कोलाहल की आराधना, संयम की साधना कर, अविरति (हिंसाहलचल है, दूषण/प्रदूषण है, जबकि भीतर निःस्तब्धता, झठ-प्रमाद आदि), कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) से विमुक्त निश्चलता, शुद्धता है। होता हुआ तथा कर्मों की संवर-निर्जरा करता हुआ16 विश्व के समस्त दर्शनों में भारतीय दर्शन और भारतीय वीतरागता की ओर प्रशस्त होता है। इललिये जैन दर्शन दर्शन में जैन-दर्शन का अपना स्थान है । जैन-दर्शन में जहाँ में सांसारिक सुखों, फलेच्छाओं, एषणाओं, सांसारिक तप:साधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | www.jal Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ प्रवंचनाओं हेतु किये जाने वाले तप की अपेक्षा सम्यग्- आभ्यन्तर तप जिसमें प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, दर्शन (आस्रवादि तत्वों को सही-सही रूप में जानना और ध्यान, व्युत्सर्ग/कायोत्सर्ग नामक तप समाविष्ट हैं 23 बाह्य उन पर श्रद्धान रखना)-ज्ञान (पर-स्वभेद बुद्धि को तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है, इसे दूसरों के समझना)-चारित्र (भेदविज्ञानपूर्वक स्व में लय करना) द्वारा देखा जा सकता है। इसमें इन्द्रिय-निग्रह होता है रूपी रत्नत्रय का आविर्भाव करने के लिये, इप्टानिस्ट, किन्तु आभ्यन्तर तप में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा अन्तरंग इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा का विरोध करने की अपेक्षा परिणामों की प्रमुखता रहती है। दूसरों की दर्शनीयता की निरोध करने के लिये किये जाने वाले तप ही सार्थक तथा [ नहीं अपितु आत्म-संवेदनशीलता, एकाग्रता, भावों की नही कल्याणकारी माने गये हैं।18 शुद्धता-सरलता को प्रधानता रहती है।24 तप.साधना में जैन दर्शन में मर्यादा, व्यवस्था, नियम-विधि उसकी दोनों प्रकार के तपों का विशेष महत्व है। साधना में जाने हेयता-उपादेयता आदि पर जो वैज्ञानिक-विश्लेषण हुआ है, वाला साधक सर्वप्रथम बाह्य तपान्तर्गत 'अनशन' में प्रवेश वह विश्व के अन्य दर्शनों में दृष्टिगोचर नहीं है। स्वरूप करता है तदनन्तर शनैः-शनैः अभ्यास करता हुआ तथा और महत्तादि की दृष्टि से यहाँ तप अनेक संज्ञाओं- अनवरत साधना क्रम/बिन्दुओं से गुजरता हुआ आभ्यन्तर सरागतप, वीतरागतप, बालतप तथा अकामतप1 से अभि- तपान्तर्गत ध्यान-व्युत्सर्ग में प्रवेश कर साधना की परिपूर्णता हित है। रागादिक व्यामोह के साथ अर्थात् भोतिक को प्राप्त करता हआ आत्मा की चरमोत्कर्ष स्थिति में प्रतिष्ठा/वैभव-ऐश्वर्य की आकांक्षा, यशलोलुपता, स्वर्गिक पहुंच जाता है। साधना की इस प्रक्रिया में यदि साधक सुख प्राप्ति हेतु किया गया तप, सरागतप, राग मेटने अर्थात् बाह्यतप में दर्शित बिन्दुओं/भेदों में कदाचित परिपक्वता कर्म-शृंखला से मुक्त, कषायों से अप्रभावीतप, वीतरागतप, प्रात नहीं कर पाता तो निना प्राप्त नहीं कर पाता तो निश्चय ही वह आभ्यन्तर लए: यथार्थ ज्ञान के अभाव में अर्थात् अज्ञानता पर आधारित साधना के क्षेत्र में सही रूप में प्रवेश नहीं कर सकता मिथ्यादष्टिपरक तप, बालतप/अज्ञानतप तथा तप की इच्छा अर्थात बाह्यतप के बिना अन्तरंग तप और अन्तरंग तप के के विना परवशता-विवशतापूर्वक किया गया तप वस्तुत: बिना बाह्यतप निरर्थक प्रमाणित होते हैं, इनका सम्बन्ध अकाम तप कहलाता है। वास्तव में अकाम तप कोई तप योगाशित है या नहीं, यह तो मात्र शारीरिक-कष्ट-व्यायाम है। बालतप (१) अनशन कर्मबन्ध के हेतु हैं।20 इसमें कषाय शीर्णता की अपेक्षा पुष्टता प्राप्त करते हैं, अस्तु ये तप सर्वथा त्याज्य हैं। तपःसाधना के क्षेत्र में प्रविष्ट साधक को सर्वप्रथम सराग तप में राग विद्यमान होने से निम्न स्तर का माना अनशन तप के सम्पर्क में आना होता है। अनशन तप के गया है, इसके करने से मिलने वाले फल भी क्षणिक-अल्प- विषय में जैनागमों में विस्तृत चर्चा की गई है । ऐसी कोई मात्रा में होते हैं । किन्तु वीतरागता से अनुप्राणित तप भी क्रियायें जो तीन गुप्जियों-मनसा-वाचा-कमणा से भोजन उत्कृष्ट कोटि का उत्तम फल देने वाला होता है, इसमें लेने में निमित्त का कार्य करती हैं, उन समस्त क्रियाओं समस्त राग-द्वेष का समापन होता है और समता-विराटता का त्यागना-छोड़ना अनशन कहलाता है। अनशन का के दर्शन होते हैं । अर्थ है.--- आहार का त्याग । चित्त का निर्मलता व्यक्ति के जैन दर्शन आत्म-विकासवादी दर्शन है। आत्मा के भोजन/आहार पर निर्भर हुआ करती है। अपरिमितविकास में एक सातत्य क्रम है, श्रेणीबद्धता है तथा अस्ख असेवनीय/असात्विक/अमर्यादित असन्तुलित आहार जीवन लित साधना है । इस दृष्टि से जैन दर्शन में तप को मूलतः में आलस्य, तन्द्रा-निद्रा, मोह-वासना आदि कुप्रभावों/ दो भागों में विभाजित किया गया है-एक बाह्य तप कुत्सित वृत्तियो को उत्पन्न कर साधना में व्यवधान उत्पन्न जिसके अनशन, ऊनोदरी/अवमोदर्य, वत्तिपरिसख्यान करता है, अस्तु आहार का त्याग शक्त्यानुसार सावधि भिक्षाचरी, रस-परित्याग, काय-वलेश, प्रतिसलीनता/ अथवा जीवनपर्यन्त तक के लिये किया जाता है। सावधि विविक्त शय्यासन नामक छह प्रभेद हैं, तथा दसरा में यह कम से कम एक दिन-रात्रि, उत्कृष्ट छह महीने ६२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य IIRAMA SCHOOL SEARN 4. . . Firmational www.jainelidi ....... . . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ 1 अथवा एक वर्ष की अवधि तक का होता है 26 बहारत्याग अवधि की इस निश्चितता और अनिश्चितता के आधार पर अनशन के दो भेद जैनागम में किये गये हैं-एक इत्वfरक और दूसरा यावत्कालिक 27 इत्वरिक में आहार-त्याग की सीमा निर्धारित निश्चित रहती है अर्थात् भोजन की आकांक्षा सीमा समाप्ति के बाद बनी रहती है। यह सावकाश, इतिरिय, अवधूतकाल, अद्धानशन, उपवास आदि संज्ञाओं में अभिहित है । जबकि यावत्कालिक में सीमाधि नहीं रहती है, इसमें पुनः आहार ग्रहण करने की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। यह भी यावज्जीव, यावत्क थिक, यावज्जीवित, अनवधूत काल, सर्वानशन, सकृदक्ति आदि नामों में उल्लिखित है इरिक और यावत्कालिक अनशन के अनेकानेक प्रभेद जैनागम में स्पष्टतः परिलक्षित हैं 1 36 जो आहार त्यागने की सीमा और प्रवृत्ति को दर्शाते है। आहार त्यागने का मूलो एव शरीर से उपेक्षा, अपनी मूलोद्देश्य चेतनवृत्तियों को भोजनादि के बन्धनों से मुक्त करना, क्षुधादि में साम्बरस से च्युत न होना अर्थात् सर्व प्रकार की इच्छा - आसक्ति के त्यागने से रहा है । शरीर एवं प्राणों के प्रति ममत्व भावों का विसर्जन अर्थात् समस्त तृष्णाओं का समापन तथा अन्तरंग में विषय-विकारों / कर्म- कषायों से विमुक्ति / निर्जरा एवं आत्मबल की वृद्धि हेतु आहार का त्याग परमापेक्षित है 30 निश्चय ही आहार त्याग से प्राण-मन इन्द्रिय संयम की सिद्धि होती है जिससे संसारी प्राणी समस्त पापक्रियाओं से मुक्त होकर, सम्पूर्ण अहिंसादिव्रत का पालन करता हुआ महाव्रती बनता है । 31 - २. कनोदरी में जैन दर्शन की मान्यतानुसार शरीर मोक्ष - साधना के लिये बना है, भोगवासभा के लिये नहीं, अस्तु आत्म-विकास भूख की अपेक्षा हूक की आवश्यकता रहती है। इस तप का अर्थ भी यही है - आहारादि, कषायादि, उपकरणादि तथा वस्तुसंग्रहादि की कमी करना / रखना अर्थात् कम से कम परिग्रह करना अर्थात् तृप्ति करने वाला तथा दर्प उत्पन्न करने वाला ऐसा जो आहार, उसका मन, वचन, कायरूप तीनों योगों से त्याग करना 132 जिससे आत्मसाक्षात्कार अर्थात् वीतराग मार्ग में कोई किसी भी प्रकार का व्यवधान बाधा उत्पन्न न हो सके । योगपरक जीवन चर्या में साधक की संग्रह / इच्छावृत्ति के संयमन के आधार पर इस उनोवरी / अवमौदर्य / अवमोदरिका तप के अनेक भेद-प्रभेद जैनागमो में वर्णित हैं । 36 वास्तव में यह तप संयम साधना / संकल्प -साधना के लिये किया जाता है 137 संयम से मन- इन्द्रियजन्य व्यापार अर्थात् कषायजन्य विकार ( काम-क्रोध-मान- माया - लोभ) शिथिल हुआ करते हैं। स्पष्ट है कि मन और इन्द्रियों को संयत किये बिना और लालसाओं को वश में किये बिना न व्यक्ति के जीवन में तुष्टि आ सकती है और न समाज, राष्ट्र या विश्व में ही शान्ति स्थापित हो सकती है । निश्चय ही यह संयमवृत्ति जीवन जीने की कला का मार्ग करती है। यह संयम आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रस्तुत साथ-साथ व्यावहारिक क्षेत्र अर्थात् आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी परम उपयोगी एवं कल्याणकारी प्रमाणित हुआ है । यह निश्चित है कि संयम के अभाव में एक दूसरे को हड़पने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी जिससे भय, अशान्ति, संघर्ष नये-नये रूपों में जन्म लेकर विकसित होते तपः साधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान राजीव प्रचडिया | ९३ मानसिक विकारों से दूर रह सकता है। जो अनशन वयक्तिक अधिकारों का हनन अथवा अन्याय शोषण घटित होने पर किया जाता है, उसे जागतिक अनशन कहा जाता है । इसमें विवशता का प्राधान्य रहता है जबकि आध्यात्मिक साधना में अनशन अन्तश्चेतना को जाग्रत करता है। आत्म-विकास साधना का यह पहला चरण निश्चय ही वह मजबूत आधारशिला है जिस पर चढ़कर साधक निर्बाध रूप से आगे बढ़ता है । आहारत्याग अर्थात् अनशन आध्यात्मिक जीवन में / साधना के क्षेत्र में तो उपयोगी है ही, साथ ही अनेकानेक सांसारिक समस्याओं के निराकरण का एक अमोघ साधन भी है। हिंसा, आक्रोश, द्वेष, राम की वह्नि घर समाज, राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो आज प्रज्वलित है, उसका मूल कारण है अनशन तप की अनुपस्थिति यह निश्चित है कि व्यक्ति का उदर अन्न के अभाव में अथवा अन्न की अतिरेकता में अपराध, संक्लेश, अनैतिक तथा अपवित्रपूर्ण जीवन जीने को बाध्य करता है । इस अनशन तप से व्यक्ति भूख पर तो विजय प्राप्त कर ही लेता है साथ ही www.jaindnes Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जायेंगे साथ संयम की प्रवृत्ति तथा अनावश्यक संचय वृत्ति की कमी आज के अर्थ वैषम्यजनित सामाजिक समस्याओं का एक सुन्दर समाधान है। राष्ट्रपिता का यह कचन कि "पेट भरो, पेटी नहीं," इस तप के व्यावहारिक रूप की सार्थकता से अनुप्राणित है । स्वास्थ्य की दृष्टि से भी आवश्यकता से कम किन्तु उससे अधिक पचाया गया प्रकृति अनुरूप भोजन व्यक्ति को आरोग्य बनाता है। 88 यह निश्चित है कि इस तप के परिपालन से व्यक्ति नीरोगस्वस्थ रहता हुआ सम्यक् आराधना कर आनन्दसीमा को स्पर्श कर सकता है । आज जहाँ एक ओर विकास के नाम पर मात्र भोग और शोक हेतु सुन्दर से सुन्दरतम आकर्षक फैशनेबुल वस्त्रों उपकरणों, साज-सज्जा के सामान, शारीरिक सौन्दर्य प्रसाधन हेतु लिपस्टिक, क्रीम पाउडर आदि तथा चमड़े से विनिर्मित वस्तुओं का प्रयोग, घोग-उपभोग, जिनसे न केवल तियंचगति के अनगिनत जीवधारियों / प्राणधारियों का हनन ही होता है, अपितु इन चीजों के सेवन करने वाले स्वयं अनेक आपदाओं-विपदाओं तथा मानसिक-शारीरिक विकारों / तनावों / कष्टों से ग्रसित होते हों, वहाँ तप का यह ऊनोदर भाव कितना सार्थक प्रतीत होगा, यह कहने की नहीं, अपितु अनुभवगम्य है । निश्चय ही इनमें उलझे व्यक्तियों को यह तप राहत देगा तथा एक नयी दिशा दर्शाएगा । ३. भिक्षाचरी , साधना के क्षेत्र में व्यक्ति को भोजन की कम, भजन की आवश्यकता अधिक रहती है । वृत्तिपरिसंख्यान / वृत्तिसक्षेप 40 / भिक्षाचर्या अथवा भिक्षावरी 41 नामक तप में भोजन, भाजन आदि विषयों से सम्बन्धित रागादिक दोषों के परिहार्य हेतु व्यक्ति आत्म-विकास की साधना करता है । साधना में शरीर व्यवधान उत्पन्न न करे इसके लिये साधक को अभिग्रह अर्थात् नियम- प्रतिज्ञा-संकल्पादि या सन्तोष वृत्ति समताभाव के साथ विधिपूर्वक निर्दोष आहार / भिक्षाग्रहण करना होता है। 42 भोजन / आहार में संकल्पादि, परिमाण, संख्यादि-नियमादि के आधार पर जैनागम में इस तप के अनेक भेद-प्रभेद स्थिर किये गये हैं। 48 'भिक्षाचरी' शब्द श्वेताम्बर परम्परा में गोचरी" / ९४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य Aaronal मधुकरी 45 से सम्बोधित किया जाता है। जिस प्रकार गाय स्थान-स्थान पर सूखा- हरा चारा बिना भेदभाव के चरती जाती है तथा भ्रमर पुष्प को बिना क्षति पहुँचाए, अपना भोजन / पराग ग्रहण करता चलता है, उसी प्रकार श्रमण साधक भी भोजन-विशेष के प्रति ममत्व भाव न रखते हुए मात्र साधना हेतु शरीर संचालन हो सके इस भावना के साथ अपनी उदर पूर्ति करता है । इस तप का दिन-प्रतिदिन किये जाने का निर्देश जैनधर्म में स्पष्टत: परिलक्षित है क्योंकि इससे साधक आहार कम करता हुआ शरीर को कृशकर संलेखना धारण करता है। भिक्षाचरी का एक ही उद्देश्य है कि साधक में भोजन / आहार के प्रति राग की शनैः शनैः कम होते जाने की प्रवृत्ति और यह वृत्ति साधक के स्वयं भीतर के प्रस्फुटित होती है, किसी बाह्य विवशता से नहीं । वास्तव में इस तप के माध्यम से व्यक्ति-व्यक्ति में आहार / भोजन पर जय-विजय प्राप्त करने की शक्ति जाग्रत होने लगती है । फिर साधक का ध्यान भोजन, नाना व्यंजनों-पकवानों में नहीं, साधना के विविध आयामों में रमण करता है । ४. रस परिश्याच इन्द्रियनिग्रह हेतु, आलस्य - निद्रा पर विजय प्राप्त्यर्थं तथा सरलता से स्वाध्याय-सिद्धि के लिये सरस व स्वादिष्ट, प्रीतिवर्धक तथा स्निग्ध आदि भोजन का मनसा वाचा कर्मणा के साथ यथासाध्य त्याग, रस-परित्याग तप कहलाता है । 42 तप:साधना में रस, विकृति, चंचलता अर्थात् उत्तेजना उत्पन्न कर साधक के लक्ष्य में नाना प्रकार के व्यवधान उत्पन्न करते हैं । साधना के मार्ग में इनसे अवरुद्धता आती है । अस्तु रस अर्थात् दूध, दही, घी, तेल, गुड़ आदि साधना के लिये सर्वधा त्याज्य हैं। 8 निश्चय ही ये रस विकृति एवं विगति के हेतु हैं । 49 इन रसों के त्यागने की विधि-नियम- प्रक्रिया संख्यादि के आधार पर यह तप जैनागम में अनेक भागों में विभाजित किया गया है 150 आज जहाँ एक ओर भक्ष्य-अभक्ष्य का ध्यान न रखते हुए अभक्ष्य अर्थात् माँस, अण्डे, मय (शराब), धूम्रपान आदि का सेवन, आधुनिक अत्याधुनिक साज-सज्जा से सुसज्जित, सुख-सुविधाओं से संपृक्त, आकर्षक खर्चीले होटलों में खाने Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रचलन आधुनिक सभ्यता का एक अंग बन गया है, है। निश्चय ही इस तप के माध्यम से शीत, वात, वहाँ इस रस-परित्याग तप की कितनी आवश्यकता एवं आतप, उपवास, तृषा, क्षुधा आदि असहनीय से असहनीय सार्थकता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। निश्चय ही विकट परिस्थितियों में/वातावरण में भी साधक समता जिस भोजन से, जो मानव स्वभाव के सर्वथा अनुकूल है, भाव और सहजवृत्ति के साथ जीवन का वास्तविक आनन्द स्वस्थ विचार, संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया, क्षमादि उठा सकता है । आज की आपाधापी, अस्थिर, हिंसात्मक समस्त गुणों का समापन होता हो, मोहादिक कृत्सित स्थिति में भयाक्रान्त व्यक्ति को निर्भयता, निडरता, वत्तियों, भोग-वासनादिक तामसी वत्तियों, मान-अभिमानादि सहिष्णुता, सहनशीलता तथा शक्ति-सामर्थ्य अर्थात आत्म बल के जागरण के लिये कायक्लेश तप की नितान्त काषायिक-विकारों का प्रादुर्भाव होता हो, तथा आत्मतत्त्व आवश्यकता रहती है। निश्चय ही इस तप की भूमिका का अपकर्षण होता हो, सर्वथा अखाद्य-अभक्ष्य कहलाएगा। आज इन्हीं भोजन का मात्र रस-लोलुपता हेतु निर्बाध रूप आज के घिनौने वातावरण में बुझते हुए दिये को प्रज्वलित से सेवन किया जा रहा है जिसके दूषित परिणाम आज करने के समान है। हमारे बीच में हैं। ऐसी स्थिति-परिस्थिति में यह तप ६. प्रतिसंलीनता निश्चय ही एक उत्तम टॉनिक का कार्य करेगा। शरीर-इन्द्रिय-मन-वचन आदि का संयमन, एकान्त ५. कायक्लेश स्थल पर रहना अर्थात् भोग से योग की ओर, विभावों से आत्म-साधना में शरीर को साधनानुकूल बनाने के स्वभाव की ओर अर्थात् सांसारिक/काषायिक वृत्तियों से लिये अर्थात् शरीर के प्रति ममत्व का विसर्जन, अनासक्त असांसारिक वृत्तियों/तपःसाधना की ओर अर्थात् बहिर्मुख भाव का बोध उत्पन्न कराने के लिये अर्थात शरीर और से अन्तमुख की ओर ले जाने की प्रक्रिया/साधना, उसमें निवास करने वाली आत्मा एक नहीं, अलग-अलग है, प्रतिसंलीनता/संलीनता66/विविक्तशयनाशन57 अथवा यह अनुभूति-शक्ति जाग्रत कराने के लिये साधक द्वारा इस विविक्तशय्यासन अथवा विविक्तशय्या तप कहलाती है। नश्वर शरीर को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनगिनत असहनीय श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिसंलीनता तप बाह्य तप के वेदना-पीड़ा-कष्ट पहुंचाना, कायक्लेश तप कहलाता है। छठवें जबकि दिगम्बर आम्नाय में विविक्तणय्यासन पांचवें तपःसाधना में यह तप श्वेताम्बर परम्परा में पांचवें स्थान क्रम में निर्दिष्ट किया गया है। पर तथा दिगम्बर आम्नाय में यह छठवें स्थान पर रखा कर्म-विपाक से विमुक्ति हेतु तप:साधना बिना व्यवधान गया है। किन्तु इसके मौलिक स्वरूप में कोई भिन्नता नहीं के निर्बाध रूप से चलती रहे, इस हेतु जैनागम में इस तप है। दोनों परम्पराओं में इसका मूलोद्देश्य एक ही है- के इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिकाया को कष्ट देना/देह का दमन करना/इन्द्रियों का निग्रह संलीनता तथा विविक्तशयनासन नामक चार भेद किये गये करना अर्थात् आत्मकल्याणार्थ शरीर के प्रति ममत्वमोह का हैं 168 इन्द्रिय प्रतिसलीनता में इन्द्रियों को आत्म-केन्द्र की विसर्जन । यह शरीर के कर्दनरूप तप अनेक उपायों द्वारा ओर मोड देना/सिकोड लेना अर्थात संलीन कर देना होता सिद्ध होता है, फलस्वरूप जैनागम में इसके अनेक भेद है। जबकि कषाय प्रतिसंलीनता में काम-क्रोध-मान-मायाप्रभेद स्थिर किये गये हैं 152 लोभादिक कषायों और उनकी प्रकृतियों को नियन्त्रण में शारीरिक कष्ट या तो प्रकृतिजन्य या उपसर्गों (देव- रखना होता है। वास्तव में कषाय प्रत्येक जीव के जन्ममनुष्य-तिर्यञ्च गति के जीवधारियों द्वारा जिसे परीषह मरण अर्थात् सांसारिक भ्रमण के निमित्त का कारण बनते या उदीरणा के रूप में जिसे कायक्लेश कहते हैं, साधक हैं।69 योग प्रतिसंलीनता में साधक द्वारा मन-वचन-काय को भोगने/सहने पड़ते हैं ।58 इस प्रकार साधक स्वकृत एवं की प्रवृत्तियों को कम अर्थात् अन्तर्मुखी बनाया जाता है। परकृत दोनों प्रकार के शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहन विविक्तशयनाशन जैसा कि नाम से स्पष्ट है-एकान्त करता हुआ मात्र आत्म-चिंतन में लीन रहता है। ध्यान स्थल । इसमें साधक को ऐसे स्थानों पर अपनी दैनिक में केन्द्रित होने के लिये इस तप की साधना परमावश्यक आवश्यक क्रियायें जैसा उठना, बैठना, शयन करना आदि तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | ६५ CTS IC CHER RS २ ESSASTER: www.it FER trit Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जहाँ किसी भी प्रकार का व्यामोह / ममत्व का अवसर न मिलता हो तथा ध्यान-साधना में किसी भी प्रकार का विघ्न- व्यवधान उत्पन्न न होता हो। कौन-कौन से स्थान साधुओं के ठहरने और न ठहरने के योग्य हैं, जैनागम में इसका विशद् विवेचन हुआ है। 50 निश्चय ही इस तप द्वारा साधक असद्वृत्तियों से हटकर सद्वृत्तियों में अपने मन-वचन और शरीर को तन्मय करता हुआ सुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत कर सकता है । काम-वासना, अहं भावना, क्रोध- ज्वाला, कपट, छल, प्रवंचना, तथा दूसरों के धन-सम्पत्ति हड़पने की प्रक्रिया की वह्नि जो आज प्रज्वलित है जिससे परिवारसमाज-राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्थिरता असामा जिकता तथा अराजकता आतंकवादिता का शोर-शराबा परिलक्षित है, शान्त शमन हो सकती है । तपःसाधना के छठवें क्रम तक पहुँचकर साधक को यह अनुभव होने लगता है कि जीवन जीने का लक्ष्य मात्र उदरपूर्ति के साधन उपकरण जुटाने / एकत्रित करने अर्थात् इन्द्रियजन्य व्यापारों में खपाने की अपेक्षा आत्म-शोधनविकास में ही होना श्रेयस्कर एवं सार्थक है। साधना के । प्रथम चार चरण आहार त्याग से सम्बन्धित है क्योंकि बिना आहार-शुद्धि के शरीर शुद्धि और तज्जन्य चित्त-शुद्धि का होना नितान्त असम्भव है । शेष दो चरणों में शरीर की शुचिता पर बल दिया गया है जिससे मन विकृति से हटकर निवृत्ति की ओर उन्मुख होता हुआ साधना-पथ पर नैरन्तर्य आगे बढ़ने को प्रवृत्त हो सके । ७. प्रायश्चित प्रमाद अथवा अज्ञानता में हुए पापों / अपराधों / दोषों / भूलों का संशोधन / शुद्धीकरण / निराकरण / परिहार तथा भविष्य में इन कार्यों की पुनरावृत्ति न होने देने का स्वकृत सकल्प, प्रायश्चित्त तप कहलाता है 161 यह आभ्यन्तर तप का प्रथम चरण है । इस तप से साधक में आर्जव गुण अर्थात् मनसा वाचा कर्मणा में एकरूपता, समरसता का संचार होता है । साधक शनैः-शनैः साधनापथ में निर्बाध रूप से आगे बढ़ता जाता है अर्थात् शुद्ध-निर्मल- पवित्र सरल स्वभावी हो जाता है अर्थात् बाहर-भीतर की अन्तर १६ | चतुर्थ खण्ड जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य -- रेखा मिट समिट जाती है । जो वह भीतर है, वही बाहर और जो बाहर है, वही भीतर उसका आचरण दर्पण सन धवल - उज्ज्वल रहता है । जब व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूपगुणों का चिन्तवन करता है, तो प्रायश्चित्तप्रवृत्ति उसमें उद्भूत होती है, वह सहज भाव से किये गये दोषों का परिहार करने के लिये सदा तत्पर रहता है । निश्चय ही यह तप पापमुक्ति का मार्ग प्रदर्शक है। दोष निवारण के अनेक साधन उपाय होने के कारण जैनागम में इस तप के अनेक भेद-प्रभेव स्थिर किये हैं जिनकी संख्या कहीं पर भी है तो कहीं पर दस 3 और कहीं-कहीं पर नौ व दस दोनों ही दृष्टव्य है 164 इस प्रायश्चित्त तप की उपयोगिता को देखते हुए बड़ेबड़े साधु-सन्त, ऋषि- आचार्यों ने इसे अपने दैनिक जीवन का एक अंग बनाया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसे प्रबुद्ध सन्तों की दैनिक डायरी का निरन्तर उपयोग इसका स्पष्ट प्रमाण है । आज के कृत्रिमता व्यस्तता से अनुप्राणित तथा छोटे-बड़े विभिन्न अपराधों से संयुक्त जीवन में यदि कोई भी व्यक्ति प्रत्येक दिन किसी भी क्षण अथवा सोने से पूर्व अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों के लेखे-जोसे को समभाव अथवा निर्लिप्त भाव से निहारे अर्थात् प्रायश्चित्त तप को अपनाये तो निश्चित ही वह व्यक्ति साधारण से साधारण और जघन्य से जघन्य अपराध-मूलों को भविष्य में न करने का संकल्प लेगा तथा तदनुरूप अपनी दैनिक चर्चा का संचा लन करेगा | यह प्रायश्चित्त भाव अपराधियों को एक बार पुनः सादगीपूर्ण जीवन जीने का मार्ग प्रस्तुत करता है। इसलिये समय-समय पर सन्त मनीषियों ने जेलों में, अपराधी स्थलियों में जा-जाकर अपराधियों का हृदय परिवर्तन कराया, उन्हें सम्यक् साधना का उद्बोधन दिया और ज्ञान दिया जाग्रत जीवन-चर्चा जीने का । निःसन्देह यदि यह प्रायश्चित्त भाव जन-जन तक पहुंचे, इसकी उपयोगिता उपादेयता को बताया जाय तो जो आज अपराध अपराधी दिन प्रतिदिन नये-नये रूपों में जन्म ले रहे हैं, विकसित अथवा पनप रहे हैं, वे समूल नष्ट-विनष्ट हो जायेंगे और एक अपराधी जीवन सादगी- मर्यादा - कर्तव्यपरायणतादि से युक्त संयुक्त होगा । निश्चय ही यह प्रायश्चित्त तप की व्यावहारिक उपयोगिता कहलाएगी। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ ... . ८. विनय किया । निश्चय ही विनय से तप, संयम और ज्ञान की सिद्धि होती है। यदि हमें इक्कीसवीं शती में जीना है तो आत्म-विकास हेतु, ज्ञान प्राप्त्यर्थ तथा कर्म-विनयन विनय को जीवन का एक आवश्यक अंग बनाना होगा, अर्थात् कर्म-निर्जरा के लिये संयम-साधना, अनुशासन तभी जीवन सार्थक एवं स्व-पर के लिये कल्याणकारी आराधना, अहंकार-विसर्जन, मृदुता-नम्रतापूर्ण व्यवहार, होगा। गुरुजन का सम्मान-आदर-भक्ति तथा गुणों की उपासना आदि मानवीय तत्त्वों का दैनिक जीवन में प्रयोग करना है. वैयावृत्त्य वस्तुतः विनय कहलाता है। यह परम सत्य है कि विनय आत्म-साधना में लीन, गुणों के आगार, तपस्वीमोक्ष का सोपान है, इससे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की संयमी, आचार्य-मनीषी, आदि की बहुविध क्षेत्रों में, त्रिवेणी प्रस्फुटित होती है। विनय के अनेक भेद-प्रभेद निष्कामभाव से, निःकांक्षित होकर अर्थात् मात्र श्रद्धा जैनागम में वणित हैं जिनकी संख्या कहीं पर तीन.66 भाव से सेवा-शुश्रूषा तथा उपासनादि करना वैयावृत्त्य कहीं चार तो कहीं पर पांच 8 अथवा सात तक कहलाता है । वैयावृत्त्य से साधक को जागतिक क्षेत्र में गिनायी गयी है। ऋद्धि, बल, यश, वैभव तथा ऐश्वर्यादि की उपलब्धि तथा आध्यात्मिक साधना में विनय का होना जहाँ आवश्यक आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मों की निर्जरा कर तीर्थङ्कर पद है वहीं सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में इसकी अर्थात् मोक्ष पदवी प्राप्ति होती है।73 सेवा-शुश्रषादि के उपयोगिता भी असंदिग्ध है। जिस समाज में यदि गुणों विविध आयामों के आधार पर जैनागम में इस तप के का सम्मान-पूजा न हो, वह समाज उन्नति की अपेक्षा अनेक प्रकार बताये गये हैं। 74 जिनका परिपालन कर अवनति के कगार पर होता है। निश्चय ही इस तप के साधक अशुभ से शुभ और शुभ से प्रशस्त शुभ की ओर माध्यम से हमारे व्यवहार में गुणों का आदर-सम्मान सदा उन्मुख रहता है। परिलक्षित है । आज शिक्षादि के क्षेत्र में जहाँ अनुशासन आध्यात्मिक के साथ-साथ सामाजिकता के क्षेत्र में यह हीनता, उद्दण्डता, उग्रता, अहंकारितादि का वातावरण आच्छादित है, वहाँ जीवन में विनय का होना परम तप मनुष्य में परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् एक दूसरे का सहयोग व उपकार करने की वृत्ति,75 दया, करुणा, आवश्यक है क्योंकि शिक्षार्जन का आधार-स्तम्भ विनय स्नेह-वत्सलता, बंधुत्व-अपनत्व, विनय की भावना तथा होता है। जहाँ अभिमान होता है, वहाँ विनय नहीं होता, कर्तव्यपरायणता का बोध उत्पन्न कराता है । इस तप की नम्रता वहाँ टिक नहीं सकती। यह अभिमान आत्मा को नरक की ओर ले जाता है70 जबकि विनय उसे धर्म के महिमा को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इससे विश्व के समस्त जीवों में-अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, मजदूरपास पहुँचाता है क्योंकि धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम फल है। विनयपूर्वक पढी गई विद्या लोक- मालिकों आदि के मध्य पडी खाइयाँ/भेद-भाव का समापन परलोक दोनों में सर्वत्र फलवती होती है। अस्त विनय से तथा धर्म-जातीय, भाषायी विवादों का शमन अर्थात हीन समस्त शिक्षा निरर्थक है । यह सत्य है कि विनयहीन अपेक्षित समता भाव का उदय होगा। व्यक्ति में सदा सद्गुणों का अभाव रहता है। कोई भी आज के विषाक्त युक्त वातावरण में, जहाँ सेवा लौकिक कार्य बिना गुरु की विनय के पूरे नहीं होते, अस्तु करने का विशाल क्षेत्र है, इस तप के माध्यम से, अपनी गुरुओं का अतिशय विनय करना अपेक्षित रहता है। सुख-सुविधाओं, एषणाओं-आकांक्षाओं को त्यागते हुए शिक्षार्जन करने का उद्देश्य भी यही है कि उससे विनय, अवश, अशक्त-असहाय, दीन-पीड़ितों, रोगियों को उपहास, बल. और विवेक की भावना जागृत हो। इतिहास साक्षी हीन, अनादर, तिरस्कार-घृणा तथा हेय की दृष्टि से न है कि विनय के बल पर ही अर्जुन विशेष धनुर्धारी हुए। देखते हुए उनकी तन-मन-धन से एकरूप होकर तन्मयता के अनेक संतों ने भी विनय के बल पर ही मोक्षमार्ग प्रशस्त साथ सेवा-शुश्रूषा करना परम उपयोगी एवं स्व-पर तपःसाधना और आज को जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | ६७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ कल्याणकारी होगा। निश्चय ही इससे सुखी-समृद्ध तथा उल्लास का वातावरण उत्पन्न होगा जिसका यत्र-तत्रसर्वत्र अभाव है । १०. स्वाध्याय " सत् शास्त्रों का मर्यादापूर्वक विधि सहित अध्ययन, अनुचितन तथा मनन अर्थात् आत्मा का हित / कल्याण करने वाला अध्ययन अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र को आराधना करना, स्वाध्याय कहलाता है । 76 आत्म-कल्याण के लिये ज्ञान की आराधना अपेक्षित है। इसलिये तत्वज्ञान का पठन-पाठन तथा उसका स्मरण आदि बातें स्वाध्याय की कोटि में आती हैं।" जैनागम में इसके अनेक प्रकार दर्शाये गये हैं। स्वाध्याय के विषय में जैनागमों में यह स्पष्ट किया है कि स्वाध्याय का प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि से तथा योग्य द्रव्य, क्षेत्र व काल में ही किया जाना श्रेयस्कर रहता है, अन्यथा वह अलाभ, कलह, व्याधि तथा वियोग उत्पन्न करता है 179 यह परम सत्य है कि स्वाध्याय से बुद्धि में तीक्ष्णता, निर्मलता आती है, इन्द्रियों और मन को वश में करने की क्षमता विद्यमान रहती है। वास्तव में स्वाध्याय में सम्यक्त्व की प्रधानता रहती है। वह निश्चित सिद्धान्त है कि जो मनुष्य आलसी और प्रमत्त होते हैं, न उनकी प्रज्ञा बढ़ती है और न ही उनका भूत (शास्त्र- ज्ञान ) ही बढ़ पाता है। जैनाचायों ने शास्त्राध्ययन के लिये अविनीत, चटोरा, झगड़ालू और धूर्त लोगों को अयोग्य बताया है 180 इसका मूल कारण है कि वह आगमपाठी जो चारित्र गुण से हीन है, आगम ( शास्त्र) को अनेक बार पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है चरि स्वाध्याय का एक महत्वपूर्ण अंग है । सच्चरित्र साधक के लिये शास्त्र का थोड़ा सा अध्ययन भी कल्याणकारी होता है 182 स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादित करने वाले) कर्म क्षय हो जाते हैं । 83 समस्त दुःखों का समापन सहज में ही हो जाता है । 84 निश्चय ही स्वाध्यायी साधक अपनी पंच इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों को भी पालने वाला होता है और एकाग्रचित्त हुआ विनय २८ | चतुर्थ खण्ड: जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य से संयुक्त होता है । प्रवचन के अभ्यास से अर्थात् परमागम के पढ़ने पर सुमेरु पर्वत के समान निष्क्रम्पनिश्चल, आठ मल रहित, तीन मूढ़ता ( लोकमूढ़तादेवमूढ़ता-गुरुमूढ़ता ) रहित सम्यग्दर्शन होता है, उसे देव, मनुष्य तथा विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं और अष्ट कर्मों के उन्मूलित होने पर प्रवचन के अभ्यास से ही विशद सुख भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय तप के द्वारा प्रज्ञा में अतिशय, अध्यवसाय, प्रशस्ति, परम संवेग, तपवृद्धि व अतिचार-शुद्धि आदि भी प्राप्ति होती है। , स्वाध्यायतप में फलेच्छा के निषेध का भी जैनागमों में स्पष्ट उल्लेख है । समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि प्राणी सम्पत्ति आदि का लाभ तथा प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो निश्चय ही यह विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्ष के फूल को ही नष्ट कर देता है जिसके द्वारा सुन्दर व सुस्वादु पके हुये रसीले फल प्राप्त हुआ करते हैं । 88 जो प्राणी केवल कर्म-मुक्ति की इच्छा से स्वाध्याय तप करते हैं, जिनमें इस लोक के फल की इच्छा बिल्कुल नहीं होती, उन्हें शान-लाभ होता है । साथ ही उन्हें आत्म शुद्धि का स्थायी सुख भी सहज में ही प्राप्त हो जाता है । निश्चय ही लोकेषणा से रहित स्वाध्याय आत्मोपयोगी होता है । आज समाज, देश राष्ट्र में ज्ञान-कुन्दता, परिहास क्षण-क्षण में उत्तेजना वासनादि, कलुषित वृत्तियाँ, द्वेष, घृणा, ईर्ष्यादि चारों ओर आच्छादित हैं उसका मूल कारण है सही दिशादर्शन का अभाव । किसी भी समाज का, राष्ट्र का मेरुदण्ड उसका युवावर्ग हुआ करता है। आज युवा समुदाय की मानसिक भूख की खुराक साहित्यिक- स्वाध्याय की अपेक्षा सस्ता बाजारू, अश्लील, तामसी राजसी वृत्तियों को उद्रेक करने वाला साहित्य है । जबकि सत् साहित्य के सतत् स्वाध्याय से व्यक्ति के ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र बढ़ता / फैलता है। साथ ही सद्-विचार, सद्संस्कार, अनन्त आनन्द, निर्विकारिता, एकाग्रता, चित्त की स्थिरता निर्मलता संकल्पस्थिरता का प्रादुर्भाव होता है । निश्चय ही स्वाध्याय एक एक उत्कृष्ट तप कहा जाएगा। 89 ११. ध्यान मन के चिन्तन का एक ही वस्तु / आलम्बन पर www.jaineliture Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अवस्थान/ठहराव/केन्द्रित करना जैनागमों में ध्यान कहा आज हमारा समस्त जीवन हर क्षण आर्तता गया है ।90 ध्यान मन की बहुमुखी चिन्तन धारा को एक रौद्रता में ही व्यतीत होता है। बहुत कम क्षण ऐसे होते ही ओर प्रवाहित करता है, जिससे साधक अनेकचित्तता हैं जो धर्म में और विरल क्षण ही शुक्लध्यान की ओर से दूर हटकर एकचित्त में स्थित होता है। वास्तव में एक- प्रवृत्त होते हैं। यह निश्चित है कि आज के व्यस्त एवं त्रस्त चित्तता ही ध्यान है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है जीवन में मन, विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, वृत्तियों, कि चित्त का निरोध करना ध्यान है। ध्यान-साधना में कामनाओं और विकार-वासनाओं आदि अन्य अनेक रूपों में ध्याता/साधक सदा ध्येय को देखा करता है । ध्याता ध्येय सक्रिय रूप से संश्लिष्ट रहता है जिसके दूषित-घातक की सम्प्राप्ति हेतु मन, वचन व काय (शरीर) का परिणाम आज प्रत्यक्षत. परिलक्षित हैं । एकीकरण योग करता है, जिसे जैनागमों में कायिक, वाचिक शिक्षा, व्यवसाय, सरकारी-गैर-सरकारी कार्यालयों तथा मानसिक ध्यान कहा गया है। कायिक-ध्यान में शरीर आदि में तथा वाहन चालन आदि में अर्थात् जीवन के का शिथिलीकरण/स्थिरीकरण किया जाता है। वाचिक प्रत्येक क्षेत्र में आज चित्त की एकाग्रता का सर्वथा अभाव ध्यान में वाणी का ध्येय के साथ में योग अर्थात् ध्येय होने से दिन-प्रतिदिन क्षण-प्रतिक्षण घटनाएँ-दुर्घटनाएं तथा और वचन में समापत्ति, दोनों का एकरस कर देना होता अनेक असावधानियाँ घटित हो रही हैं। वास्तव में चित्तहै तथा मानसिक ध्यान में मन का ध्येय के साथ योग एकाग्र का प्रबलतम एवं उत्कृष्ट साधन है-ध्यान । ध्यान किया जाता है ।91 के माध्यम से मन को चंचलता, अस्थिरता, अशान्ति तथा तपःसाधना में ध्यान का स्थान सर्वोपरि है। इसका व्यग्रतादि मिटती है। आनन्द-सुख के स्रोत जो भीतर सूप्त/ मूल कारण है कि ध्यान के द्वारा साधक में मानसिक शक्ति बन्द हैं, जाग्रत होते हैं/खुलते हैं । निश्चय ही ध्यान की और सामर्थ्य का पुञ्ज प्रकट होता है तथा कर्मों की जब- साधना मन को निविषय बनाने की अद्भुत प्रक्रिया है। दस्त शृंखलाओं का टूटना भी होता है अर्थात् कर्मों का इससे आत्मा के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है । आत्मक्षय होना होता है । कर्मक्षय होने पर साधक संसार के बोध-होने पर दुःख का सागर और अज्ञानता का बादल आवागमन की प्रक्रिया से मुक्त हो जाता है, मोक्षपद प्राप्त सान्त हो जाता है/कट-छंट जाता है। कर लेता है। १२. व्युत्सर्ग जैनागमों में आभ्यन्तर तपःसाधनान्तर्गत ध्यान को तप:साधना का यह अन्तिम चरण है। इसमें सर्व कहीं पर पांचवें और कहीं-कहीं पर छठवें क्रम में रखा प्रकार का त्याग अर्थात बहिरंग में शरीर-आहारगया है।94 चित्त का प्रवाह चहुंमुखी होने के कारण ध्यान उपकरणादि तथा अन्तरंग में राग-द्वेषादिक काषायिक को आत-रौद्र-धर्म-शुक्ल नामक चार भागों में वर्गीकृत वृत्तियों का छूटना होता है। साधक साधना की इस चरम किया गया है। जिसके अनेक प्रभेद भी स्थिर किये हैं। स्थिति पर पहुँच कर पूर्णरूप से निःसग, अनासक्त तथा इनमें आर्त और रौद्र ध्यान संसार के परिवर्धक हैं, अस्तु आत्मध्यान में लवलीन हो जाता है ।10 उसे यह अनुभव अप्रशस्त हैं, अशुभ हैं । किन्तु धर्म और शुक्ल निर्वाण के होने लगता है कि यह शरीर भोग, यश-प्रतिष्ठा आदि साधक हैं, अस्तु प्रशस्त एवं शुभ हैं । धर्मध्यान शुक्लध्यान समस्त बाह्य तत्त्वों में राग-द्वेष रखने की अपेक्षा इन सबमें को प्रारम्भिक अवस्था है। जीव के आध्यात्मिक विकास के उपेक्षा, उदासीनता रखने के लिये तथा आत्म तत्त्व के क्रम को गुणस्थान/जीवस्थान कहा जाता है। इसके चिन्तवन में ही लगाने के लिये बना है । वास्तव में यह चौदह क्रम/गुण जैनागमों में निर्दिष्ट हैं। 8 धर्मध्यान सातवें शरीर और उसका समस्त व्यापार निरर्थक है, निम्सार है। गुणस्थान तक और शुक्लध्यान आठवें से चौदहवें-गुणस्थान जबकि इस नश्वर-अचेतन शरीर में विराजमान चेतनशक्ति तक रहता है । चौदहवें गुणस्थान में साधक पूर्ण रूप से अर्थात् आत्म तत्त्व ही सार है, अस्तु उसका चिन्तवन स्व निर्वाण/सिद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। एवं पर दोनों के लिये उपयोगी एव कल्याणकारी है। तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | ६६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) निश्चय ही यह भावना साधक को बहिर्जगत से अन्तर्जगत उपर्युक्त पंक्तियों में कथ्य विचार से निष्कर्षत: यह की ओर उन्मुख करने में परम सहायक-सिद्ध होती है। कहा जा सकता है कि जैन तपःसाधना शरीर को कष्ट जैनागमों में कहीं-कहीं पर व्यूत्सर्ग के स्थान पर कायो- देने की अपेक्षा उसे विकार-विवजित बनाती है। इसमें त्सर्ग का उल्लेख मिलता है।101 कायोत्सर्ग में भी शरीर अन्तःकरण को शुद्ध किया जाता है, सुप्त चेतना को के साथ-साथ सर्वप्रकार के ममत्व का त्यागना होता है। जगाया जाता है अर्थात् अंतरंग की शक्ति का उद्घाटन ममता हटते ही साधक में समता के भाव उदय होने लगते होना होता है । साधक कभी अनशन करके तो कभी भूख हैं । विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी माध्यस्थ से कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण कर तो कभी भावना जाग्रत रहती है। देव-मनुष्य-तिर्यञ्च सम्बन्धी किसी रस को तजकर शरीर को नियन्त्रित करता हुआ भयंकर से भयंकर उपसर्गों की चिन्ता न करते हुए सम्यक्- चेतन-अवचेतन मन में प्रविष्ट वासनाओं पर विजय प्राप्त चेतन-अवचेतन मन में प्रविष्ट वासनाआ पर रूप से अर्थात् मन-वचन-काय अर्थात् समभाव से साधक करता है। इन सबके लिये ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठनसाधना में अपने चित्त को एकाग्र किये रहता है ।102 चिन्तवन आदि में वह लीन रहता है। संसारी-बाह्य वास्तव में कायोत्सर्ग में जो साधक सिद्ध हो जाता है, वह प्रभावों से अपने को अलग करता हुआ साधक अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में भी सिद्धहस्त हो जाता है 1108 आत्मस्वभाव अर्थात् आत्मस्वरूप की प्राप्ति में जीवन को जैनागमों में व्युत्सर्ग104/कायोत्सर्ग106 अनेकानेक भेदों तपःसाधना/अध्यात्म साधना में खपा देता है। वास्तव में प्रभेदों में वर्णित हैं । सर्वार्थसिद्धि में व्युत्सर्ग तीन प्रकार तप की साधना जीवन का एक अनिवार्य अंग है। जीवन से स्पष्ट किया गया है। एक में ममकार एवं अहंकार के प्रत्येक क्षेत्र में तप की आवश्यकता पग-पग पर बनी आदि का त्याग, दूसरे में कायोत्सर्ग आदि करना तथा रहती है। संसार की समस्त समस्याएँ-बाधाएँ तपमय तीसरे में व्युत्सर्जन करना होता है। 106 जीवन से ही समाप्त हुआ करती हैं। अस्थिरता, अशान्ति, इस तप के प्रभाव से प्राणी-प्राणी में समभाव, बेचैनी, एक अजीब प्रकार की उकताहट-निराशादि के तटस्थता/निष्पक्षता, जो है उसके स्वरूप की प्रतीति, वातावरण में तप-साधना जीवन को एक नया आयाम देती चिन्तनात्मक दृष्टि, विषम परिस्थितियों में सहिष्णता, है, स्फूर्ति और शक्ति का संचार करती है। जिस प्रकार निर्भयता तथा बलिदान-कर्तव्य की भावना-आस्था सदा सूर्य-रश्मियाँ संसार को प्रतिदिन एक नया जीवन देती हैं, विद्यमान रहती है जिसकी आज के विषादयुक्त वातावरण उसी प्रकार यह तपःसाधना संसारी प्राणी को एक नई में परमावश्यकता है। निश्चय ही यह तप भौतिक वस्तुओं चेतना देगी, जागृति देगी। निश्चय ही इससे अग-जग में के साथ-साथ शरीर के प्रति जो ममत्व है, उसे समाप्त एक नया दिन, एक नई रात और एक नया रूप प्रस्फुटित होगा। कर प्रसन्नता-आनन्द का वातावरण प्रदान कराएगा। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची१. (क) प्रवचनसारोद्धार, द्वार २७०, गाथा १४६२ (ख) राजवार्तिक, ९/६/२७/५६६/२२ २. (क) भगवती आराधना, मूल/१४७२-१४७३ (ख) गोपथ ब्राह्मण, २/५/१४ (ग) कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/6 (घ) तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/७/७० (ङ) मनुस्मृति, ११/२२६ (च) मुण्डकोपनिषद्, १/१/८ १०० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य ३. (क) शतपथ ब्राह्मण, ३/४/४/२७ (ख) सामवेद पूर्वाचिक १/११/१० ४. अथर्ववेद, ११/५/४ ५. मनुस्मृति, ११/२३८ ६. (क) दशवकालिक, १/१ (ख) वाल्मीकि रामायण, ७/८४/8 ७. आत्मानुशासन, श्लोक ११४ ८. मज्झिमनिकाय कन्दरक सूत्र । -भगवान बुद्ध, पृष्ठ २२०, www.jainelil Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ११/ ६. सामवेदपूर्वाचिक, १/११/१० (ख) संयममारांहतेण तवो आराहिओहवेणियमा । १०. मुण्डक उपनिषद्, १/१/८ -भगवती आराधना, मूल, ६/३२ ११. देवाद्विज-गुरुप्राज्ञ"..."तपोमानसमुच्यते । (ग) संजमहीणो य तवो जइवरइ णि रत्थयं सव्वं । --श्रीमद्भगवद् गीता, अध्याय १७ -शीलपाहुड, मूलगाथा ५ १२. (क) जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण . (घ) सम्मदिट्ठिस्सवि अविरदस्स ण तवो महागुणो -लेखक-मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज, पृ० १४५. होदि। -मूलाचार, गाथा ६४० (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप । (क) बारस-विहेण तवसा णियाण-रहियस्स णिज्जरा-देवेन्द्र मुनि शास्त्री होदि...." -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १०२ (ग) धर्म दर्शम : मनन और मूल्यांकन (ख) तपसा निर्जराश्च । -तत्वार्थ सूत्र, ६/३ -देवेन्द्र मुनि शास्त्री (ग) कायमणोधचिगुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अर्णयविह .(क) आचारांग सूत्र, १/४/३ सो कम्मणिज्जराए विपुलाए बट्टदे मणस्सोत्ति (ख) उत्तराध्ययन सूत्र, ३८/३५ -राजवार्तिक, ८/२३/७/५८४ (ग) उत्तराध्ययन सूत्र, २०/६ (घ) तपसश्च प्रभावेण निर्जीणं कर्म जायते । (घ) दशर्वकालिकसूत्र, १०/७ -न्यायविनिश्चय, मूल, ३/५४/३३७ (ङ) सोहओ तवो। -आवश्यक नियुक्ति, १०३ (च) विसयकसाय विणिग्गह भावं काउण झाणसिज्झीए (ङ) जेणहवे संवरणं तेण दुणिज्जरणमिदि जाणे । -वारस अणुवेक्खा, गाथा संख्या ७७, -बारस अणुवेक्खा, ६६ (च) तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होइ १४ (क) सर्वार्थसिद्धि, ६/६/४१२/११, जिणवयणे......" (ख) कर्मदहनात्तपः। राजवार्तिक, ९/१६/१८/६१९/३१ -भगवती आराधना, मूल १८५४/१६६४ (ग) तत्त्वसार, ६/१८/३४४ (छ) जो संवरेण जुत्तो अप्पटपसाधगोहि अप्पाणं"। (घ) कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम् । -पंचास्तिकाय, मूल, १४५ -पद्मनन्दिपंचविंशतिका, अधिकार संख्या १, (ज) दशवकालिक, ६३ श्लोक संख्या ६८, १७. (क) इह-पर लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि (3) जम्हा निकाइयाणवि कम्माण तवेण होइ समभावो। विवहंकायकिलेसं तवधम्मो णिम्मलो निज्जरणं । तस्स । -नव तत्त्वप्रकरण, ११, भाष्य ९०, देवगुप्तिसूरि -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूलगाथा, ४०० प्रणीत। (ख) राजवातिक, ६/१६/१६/६१६/२४ (च) तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः। (ग) णो पूयणं तवसा आवहेज्जा। तेसि पि न तवो -आवश्यक मलयगिरि, खण्ड २, अध्याय १ सुद्धो। -सूत्रकृताङ्ग ७-८/२७-२४ (छ) तवोणाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठि नासेतित्ति बुत्तं भवइ। १८. तपोमनोऽक्षकायाणांतपनात संनिरोधनात् । निरुच्यते -दशवकालिक, जिनदासचुणि, पृष्ठ १५ दृगाद्याविर्भावायेच्छा निरोधनम् । १५. (क) रइएसु ओरालिय सरीरस्स उदयाभावादो -अनगार धर्मामृत, ७/२/६५६ पंचमहव्वयाभावादो। १६. जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण -धवला, १३/५,४,३१/११/५ -मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज, पृष्ठ १३६-४० तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | १०१ AMANAS Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ २०. (क) अज्ञानकृतयोव्रत तपः कर्मणो. बन्धहेतुत्वाद् बालव्यपदेशेनप्रतिषिद्धत्वे सति । -समयसार आत्मख्याति, गाथा १५२, (ख) यथार्थप्रतिपत्त्यभावादज्ञानिनो बालामिथ्या दृष्ट्यादयस्तेषां तपः बालतपः अग्निप्रवेशकारीष साधनादि प्रतीतम्। --राजवार्तिक, ६/१२/७/५१२/२८ (ग) बालतपो मिथ्यादर्शनोपेतमनुपाय कायक्लेश प्रचुरं निकृति बहुलव्रत धारणम् ।। ---सर्वार्थसिद्धि, ६/२०/३३६/१ (घ) जस्स वि दुप्पणिहिआ होति कसाया तवं चरंतस्स सो बालतवस्सी वि व गयण्हाण परिस्सम कुणइं। -दशवकालिकनियुक्ति, ३०० (ङ) प्रवचनसार, ३/३८ (घ) बाह्यतपः बाह्यशरीरस्यं परिशोषणेन कर्मक्षपण हेतुत्वादिति । आभ्यन्तरं चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपण हेतुत्वादिति ॥ -समवायागं, ६, अभयदेव वृत्ति (ङ) अभिब्तरए......"प्रतीयमानत्वाच्चेति । -औपपातिक सूत्र, ३०, अभयदेववृत्ति (च) सन्मार्गज्ञाः अभ्यन्तराः। तदवगम्यत्वात् घटादिव तैराचरितत्वाद्वा बाह्याभ्यन्तरमिति । --भगवती आराधना, वि० १०७ २५. अनशनं नाम अशनत्यागः । स च त्रिप्रकार ।""" ऐतेषा मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादान कारणानां त्यागोऽनशनं चारित्रमेव ।। -भगवती आराधना, वि० ६/३२ २६. (क) जो मणि-इंदिय विज्जई.........."तवं अणसणं होदि। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४०-४४१ (ख) चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासोऽथवाऽमृतेः । सकृदभुक्तिश्च मुक्त्यर्थ तपोऽनशनमित्यर्थाः॥ -अनगार धर्मामृत ७/११ (ग) तत्थ चउत्थ- छ ट्ठम-दसम-दुआलस........ णाम तवो। -धवला, १३/५,४,२६ शवला । (घ) आवश्यकनियुक्ति । २१. जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण -मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज, पृष्ठ १३६ २२. निशीथभाष्य, गाथा ३३३२ २३. (क) दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भतरो मुणेयव्वो एक्केवको वि छद्धा जधाकम्मं तं परूवमो। -मूलाचार, गाथा ३४५ (ख) सर्वार्थसिद्धि, ६/१६/४३८/२ (ग) अनशनावमौदर्य......."ध्यानान्युत्तरम् । ___-तत्वार्थसूत्र, ६/१६-२० (घ) द्रव्य संग्रह, ५७/२२८ (ङ) चारित्रसार, १३३, (च) सो तवो दुविहो चुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा........ झाणं च विउस्सग्गो एस अब्भिन्तरो तवो।। - उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/७-८-६ २४. (क) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्पर प्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् । कथमस्याभ्यन्तरत्वम् । मनोनियमनार्थत्वात् । -सर्वार्थसिद्धि, ९/१६-२०/४३६/३-६ (ख) राजवार्तिक, ९/१६/१७-१८/६१६/२६ (ग) अनगार धर्मामृत, ७/६, ३३ १०२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य २७. (क) इतिरियं यावज्जीव दुविह पुण अणसणं मुणेदवं -मूलाचार, ३४७ (ख) भगवती सूत्र, २५/७ २८. (क) इत्तरिय मरणकाला य अणसणा दुविहं भवे"" -उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/8 (ख) अनवधृतकालमादेहोपरमात् । -राजवार्तिक, २/१६/२ (ग) अद्धाणसणं सव्वाणसणंदुविहं तु अणसणं भणियं । -भगवती आराधना, २०६ (घ) अनगार धर्मामृत, ७/११ (ङ) अद्धानशन समिशन द्विविकल्पमनशनमिहोक्तम् । विहृतिभृतोद्धानशनं सर्वानशनं तनुत्यागे॥ -ज्ञानदीपिका पंजिका, ७/११ मा National www.jail Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ३९. ( क ) उत्तराध्ययन सूत्र, ३० / १०-११ (ख) जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण लेखक मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज, पृ० १८१-१६६ (ग) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ६०१ ३०. (क) राजवार्तिक, ६ / ११ / १,१६ 1) यस्यसकलकालमेव सकल पुद्गलाहरण शून्यमात्मानमवबुद्ध्यमानस्य -------- - बलीयस्त्वात् । --प्रवचनसार - तत्त्व प्रकाशिका, २२७ (ग) उत्तराध्ययन सूत्र, २६ / ३५ (घ) जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण -- लेखक - देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृष्ठ २११ (ङ) दृष्टफलानपेक्ष संयम सिद्धि - रागच्छेदकर्म विनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशनम् । - सर्वार्थसिद्धि, १/१६ (च) चारित्रसार, १३४/४ (छ) स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणां वसनाल्लयात् । - अनगारधर्मामृत ७/१२ ३१. ( क ) किमट्ठमेसो कीरदे ? पाणिदियसंजमट्ठ भुत्ती उह्यासंजम अविणाभाव दसणादो । —धवला, १३/५,४,२६ ब) इति यः षोडशायामानगमयति परिमुक्त सकल सावद्य........महाव्रतित्वमुपचारात् । - पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, १५७, १५८, १६० ३२. योगत्रयेण तृप्तिकारिण्यां भुजिक्रियायां दर्पवाहिन्यां निराकृतिः अवमौदर्यम् । - भगवती आराधना, वि०, ६ / ३२ / १७ ३३. (क) समवायांग, ६ (ख) भगवती सूत्र, २५/७ (ग) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/८ ३६. (क) स्थानाङ्ग सूत्र, ३/३८१ ४२. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, २४ / ११-१२ (ख) पिण्डनियुक्ति, ६२-६३ (ग) धर्म, दर्शन: मनन और मूल्यांकन - लेखक - देवेन्द्रमुनि शास्त्री अध्याय क्रियात्मक धर्म / दर्शन, पृष्ठ ३५ (घ) भायेण - भायण-धर-वा-दादारा वृत्तीणाम | .....सो वृत्तिपरिसंखाणं णाम तपो त्ति भणिद होदि । - धवला, १३ / ५,४,२६ (ङ) एकादिगह पमाणं किच्चा संकष्प कप्पिय विरसं । भोजं सुव्व भुजदि वित्ति प्रमाणं तवो तस्स ।। - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४५ (च) एकवस्तु दशागार-पान मुद्गादि गोचरः । संकल्प क्रियते यत्र वृत्ति परिसंख्याहि तत्तपः ॥ - तत्वार्थसार, ७/१२ (छ) गोयर पमाण दायग भायण णाणाविधाण जं गहणं । तह एसणस्स गहणं विविधस्सवृत्तिपरिसंखा ॥ -मूलाचार, गाथा, ३५५ तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | १०३ ३४. (क) तत्वार्थ सूत्र, ६/१६ (ख) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/१४-२३ ३५. ( क ) औपपातिक सूत्र, ३० (ख) भगवती सूत्र, २५/७ (ख) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/१४-२४ (ग) ओमोयरिया दुविहा- दव्वमोयरिया य भावमोयरिया । - भगवती सूत्र ३७. (क) संजम प्रजागर दोष प्रशम-संतोष स्वाध्यायादि सुख सिद्ध्यर्थमवमौदर्यम् । - सर्वार्थसिद्धि, ६/१९/४३८/७ (ख) धम्मावासयजोगे णागादीये उवग्गहं कुणदि । णय इंदियप्पदोसयरी उमोदरितवोवुत्तो ॥ मूलाचार, ३५१ ३८. कालं क्षेत्रं मात्रां स्वात्मयं द्रव्य-गुरु लाघवं स्वबलम् । ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्यं भुङ्क्तो कि भेषजेस्तस्य ॥ -- प्रशमरति प्रकरण, १३७ ३६. तत्त्वार्थ सूत्र, ६/१६ ४०. समवायांग, सम० ६ ४१. (क) स्थानाङ्ग सूत्र, ३/३/१८२ (ख) भगवती सूत्र, २५ / ७ /११५ (ग) उत्तराध्ययन सूत्र, ३० / ३५ (घ) औपपातिक ३० www.jain Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......... ............. . .. ... . ... . .. ............. .... . साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ द्यथा (ज) एकागारसप्त वैश्मरथ्याद्ध'ग्रःमादि विषयः ४६. (क) तत्रमनसोविकृतिहेतुत्वाद् विगति हेतुत्वाद् वा संकल्पोवृत्ति परिसंख्यानम् । विकृतयो विगतयो। -प्रवचनसारोद्धार, -राजवात्तिक, ९/१६/४/६१८/२४ वृत्ति, (प्रत्याख्यान द्वारं) ४३. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/२५ (ख) मनसोविकृति हेतुत्वाद् विकृतयः । -योगशास्त्र, ३ प्रकाश वृत्ति (ख) स्थानाङ्ग सूत्र ६ (ग) मूलाराधना, ३/२१३-२१५ ४४. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/२५ (घ) स्थानाङ्ग सूत्र, ६/६७४, ४/२७४ (ख) दशवकालिक सूत्र, ५/१/३ हरिभद्रीय टीका, ५०. (क) से कि त रस परिच्चाए ? रस परिच्चाए पत्र. १६३ अणेगविहे पण्णत्ते तं जहा-णिविगए, पणीय(ग) आचारांग सूत्र, २/१ रसविवज्जए-जहा उववाइए जाव लहाहारे । ४५. दशवकालिक सूत्र १/५ से ति रस परिच्चाए। ४६. (क) वृत्तिपरिसख्यानमाशानिकृत्यर्थभवन्तव्यम् । -भगवती सूत्र, २५/७/११६ --सर्वार्थसिद्धि, ६/१६ (ख) से कि तं रस परिच्चाए? अणेगविहे पण्णत्ते । (ख) अणुपुवणाहारं सेवंद्रुतो य सल्लिइह देहं.... ......."लहाहारे। -औपपातिक, सम० ३० वृत्ति परिसंख्यानमित्ति । (ग) तत्त्वार्थसार, ६/११ -भगवती आराधना, व विजयो० टीका, १४७ ५१. (क) अन्नं इमं शरीरं अन्नो जीवुत्ति एवकयबुद्धी । ४७. इन्द्रिय-दर्पनिग्रह-निद्राविजय-स्वाध्याय सुख सिद्ध्या दुक्ख परिकिलेसकरं छिद ममत्तं-सरीराओ। द्यर्थ......."रस परित्यागः । -सर्वार्थसिद्धि, ६/१६ -आवश्यकनियुक्ति, १५४७ - ४८. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, ३२/१० (ख) नत्थि जीवस्स नासुत्ति । (ख) खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं । -उत्तराध्ययन सूत्र, २/२७ परिवज्जण रसाणं तु भणियं रस विवज्जण ।। (ग) वोसिरो सव्वसो कायं न म देहे परीसहा । -उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/२६ -आचारांग सूत्र, १/८/८/२१ (ग) खीरदधि सप्पितेल्ल गुडाण पत्तेगदो व सव्वेसि (घ) कायसुखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः । णिज्जूहण मोगाहिम पण कुसण लोणमादीणं । -भगवती आराधना, विजयोदया, ६/३२/१८ -भगवती आराधना, २१५ (ङ) दुस्सह-उवसग्गजई आतावण-सीय-वाय-खिण्णो (घ) रसत्यागो भवेत्तलक्षीरेक्षुदधिसपिणाम् । वि। जो णवे खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो एक द्वित्रीणिचत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा ॥ तस्स । –कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूलगाथा, ४५० –तत्वार्थसार अधिकार ६, श्लोक ११ ५२. (क) ऊर्ध्वाकधियनैः शवादियनर्वीरासनाद्यसनः ........ (ङ) रसगोचरगार्द्धमत्यजनं त्रिधा रस परित्यागः । सध्यानिसिद्ध्य भजेत् । -भगवती आराधना, वि०, ६/३२/०८ -अनगारधर्मामृत, ७/३२/६८३ (च) घृतादिवृष्यरस परित्यागश्चतुर्थ तपः । (ख) आतपस्थान वृक्ष मूलोनिवासो निरावरगशयन -सर्वार्थसिद्धि, ६/१६/४३८/8 बहुविध प्रतिमा स्थानमित्येवमादिः कायक्लेशः। (छ) राजवात्तिक ६/१६/५/६१८/२६ । -सर्वार्थसिद्धि, ६/१६ (ज) खीरदहिसप्पि तेल गुड लवणाणं च जं परिच्चय- (ग) आयंबिल णिव्वियडी एयठाणं छठ्ठमाइखणं तित्तकडकंसायं विलमधुररसाणं च जं चयणं । वणेहिं । जं करइ तणुतावं कायकिलेसो मुणे-मूलाचार, गाथा, ३५२ यव्वो। -वसुनन्दि श्रावकाचार, ३५१ १०४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jainaliticar Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ (घ) राजवार्तिक, ६ / १९/१३/६१६/१५ (ङ) ठाणस्सणाराणेहि य विविहहिं पग्गयेहि बहुगेहि । अणुविचि परिताओ कायकिलेसो हवदि एसो ॥ - मूलाचार, मूलगाथा, ३५६ (च) सतविधे कायकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा- ठाणातिए, उक्कुडयासणिए, पडिमठाई, वीरासणिए, सज्जिए, दण्डायतिए, लगडसाई । - स्थानाङ्ग सूत्र, ७/४६ (छ) ठाणावीरासणाइया जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहिया || - उत्तराध्ययन सूत्र, ३० / २७ (ज) औपपातिक सूत्र, ३६ (झ) मूलाराधना, ३ / २२२ ५६. उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/८ ५७. (क) तत्त्वार्थ सूत्र, ६ / १६ (ख) मूलाराधना, ३/२२८, २६, ३२ ५८. भगवती सूत्र, २५७ ५६. आचारांग नियुक्ति, १८६ ६०. (क) जो रागदोस हेदूआसणसिज्जादियं परिच्चयइ । ......एदं तवं होदि ॥ — कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४७-४४६ (ख) शून्यागारादिषु विविक्तेषु जन्तु पीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यानमबाधात्यय ब्रह्मचर्यं स्वाध्याय ध्यानादि प्रसिद्ध यथं कर्त्तव्यमिति पञ्चमंतपः । - सर्वार्थसिद्धि, ९/१६ पंच (ग) कलहो बोलो झंझावामोहोममति च समिदो तिगुत्तो आदट्ठ परायणोहोदि । -भगवती आराधना, २३२-२३३ (घ) गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं विराग -- बहुल धीरो भिक्खूणि सेवेऊ ॥ -मुलाचार, ६५० (ङ) कृतिमाश्च शून्यागारादियो मुक्त मोचितावासा । अनात्मोद्दश्यनिर्विर्तिता निरारम्भाः सेव्याः || - राजवार्तिक, ६/६/१६ (च) गंद्य व्वणट्ट जट्ठस्सचक्क जंतरिंग कम्म फरसे य । ........ समाधीए बाधादो । (त) तत्त्वार्थसूत्र - श्रुतसागरीय वृत्ति, ६ / १६ (थ) भगवती सूत्र - २५/७/११७ ५३. (क) जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण - लेखक, मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज, पृष्ठ २८३-२८५ (ख) परीषहस्यास्य च को विशेषः ? यदृच्छोपनिपतितः परीषहः स्वयंकृतः कायक्लेशः । - सर्वार्थसिद्धि, ६/१६/४३९/१ (ग) यहच्छाया समागतः परीषहः स्वमेवकृतः कायक्लेश:, इति परीषह कायक्लेशयोविशेषः । -तत्त्वार्थ सूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति, ६ / १६ ५४. (क) किमट्ठमेसो करिदे ? सीद वादादवेहि बहुदोवासे हि तिसा छुहादि-वाहाहिं विसंकुलास - भगवती आराधना, ६३३, ६३४ ६१. (क) प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् । - धर्मसंग्रह, अधिकार ३ (ख) अपराधो वा प्रायः चित्तं शुद्धिः । प्राय सचित्तं प्रायश्चित्तं अपराधविशुद्धिः । हि य ज्झाण परिचयट्ठे ओत्थअस्सझणाणुक्तदो । - धवला, १३/५,४,२६ (ख) चारित्रसार, १३६ - राजवार्तिक, ६/२२/१ (ग) श्रावकोवीर चयहिः प्रतिमातापनादिषु । स्यान्ना- (ग) कायवरोहेण मसंवेयणिव्वेएण मगावराहणिराय धिकारी सिद्धान्त - रहस्याध्ययनेऽपि च ।। रहरणट्ठ जमणुट्ठाणं कीरदि तप्पायच्छित्तं - सागार धर्मामृत, ७ / ५० णाम तवोकम्मं । -धवला, १३ ५५. से कि ते पडसंलीणया ? चउव्विहा पण्णत्ता, तं (घ) प्रमाददोष परिहारः प्रायश्चित्तम् । जहा - इंदियपडि संलीणया, कसायपडिसलीणया, जोग - सर्वार्थसिद्धि, ६/२० पडिलीणया विवित्त सयणासण पडिलीणया । (ङ) पावं छिंदई जम्हा पायच्छित्तं त्ति भण्णइ तेण । - औपपातिक सूत्र, १६ - पंचाशक- सटीक, १६/३ तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान राजीव प्रचंडिया | १०५ www.jair Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ (च) पायच्छितं ति तवो जेण.......... 'बामाइ । - मूलाचार गाथा, ३६१ व ३६३ (छ) जो चिंतइ अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी । त्रिविरचितो पायच्छितं वरं तस्सं ॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४५५ (ज) प्राय: प्रचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम् । - नियमसार (तात्पर्याख्यावृत्ति), ११३ (झ) प्रायोलोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धि कृत्क्रिया । प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ॥ - अनगार धर्मामृत, ७ / ३७ तदुभय विवेकव्युत्सर्गतपछेद -- तत्त्वार्थ सूत्र, ६/२२ ६२. आलोचन प्रतिक्रमण परिहारोपस्थापना: । ६३. (क) आलोयणपडिकमणं उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो । तवछेदो मूलं विय परिहारो चेव सद्दहणा | -मूलाचार, गाथांक, ३६२ (ख) चारित्रसार १३७/३ (ग) धवला, १३ / ५, ४, २६ (घ) औपपातिक सूत्र, २० (ङ) से कि तं पायच्छितेण दसविहे पण्णत्ते, त जहाआलोयणारिहे जाव पारांचियारिहे । से तं पायच्छिते । - भगवती सूत्र, २५/७/१२५ (च) उत्तरज्झयणाणि, द्वितीय भाग, अध्ययन ३०, श्लोक ३१, टिप्पण संख्या ११ अणवट्ठप्पारिहे । - स्थानांग सूत्र ९/४२ दसविहे पायच्छिते पण्णत्ते पारंचियारिहे । —स्थानांग सूत्र, १०/७२ ६४. नवविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते ६५. (क) पूज्येष्वादशे विनयः । - सर्वार्थसिद्धि, ९/२०/४३६/७ (ख) दंसणणाण चरिते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो । वारसभेदेवितवे सो च्चिए विणयो हने तेसि ॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४५७ ...विनय (ग) सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्ष साधनेषु" सम्पन्नता । -राजवार्तिक, ६/२४/२/५२६/१७ १०६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य (घ) रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृ' वत्तिविनयः । —धवला, १३/५,४,२६/६३/४ (ङ) विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः । - भगवती आराधना विजयोदया ३०० / ५११/२१ (च) जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चाउरंत मोक्खायं । तम् उ वयंति विउ विणयति विलीण संसारा ॥ -- स्थानांग वृत्ति, ६ (छ) मूलाचार, गाथा १८८ से २१२ तक ६६. विणओ तिविहो णाण दंसण चरित्त विणओत्ति । -- धवला, ८/३,४१ / ८८ ६७. (क) ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः । (ख) चारित्रसार, १४७/५ (ग) तत्त्वार्थ सूत्र, ७/३० - तत्त्वार्थ सूत्र, ६/२३ ६८. लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्तं य कामंतते य । भय विणओ य चउत्थो पंचमओ मोक्ख विणओ य । - मूलाचार, गाथांक, ५८० ६९. (क) भगवती सूत्र, २५/७/१२६-१४१ (ख) औपपातिक सूत्र ४० (ग) सत्तविहे विणये पण्णत्ते, त जहा - णाणविणए, दंसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वयfare, कायविए, लोगोवयार विणए । - स्थानांग सूत्र, ७ / १३० ७०. स्थानांग सूत्र, ४/२ ७१. (क) एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमोपसे मोक्खो । - दशवकालिक सूत्र, ६/२/२ (ख) ज्ञानदर्शनचारित्रतप सामतीचाराः अशुभक्रियाः । तासाम पोहनं विनयः । - भगवती आराधना, विजयोदया ६ ७२. (क) व्यापत्ति व्ययनोदः पदयोः संवाहनं च गुणगान् । वैयावृत्यं या वानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनां ॥ - रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ११२ www.jaine Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ TAITritiiiiiiiiiiiiiiiill (ख) व्यापदि यत्कियते तद्व यावृत्त्यम् । (ख) आचार्योपाध्याययतपस्विशैक्षग्लानगणकुल संघ-धवला, १३/५,४,२६/६३/६ साधु मनोज्ञानाम् । -तत्त्वार्थ सूत्र, ६/२४ (ग) तेषामाचार्यादीनां व्याधि परीषहः मिथ्यात्वाधु (ग) धवला, १३/५,४,२६/६३/६ पनिपाते प्रासुकौषधिभक्त पान प्रतिश्रय पीठ (घ) भावपाहुइ, टीका, ७८/२२४/१६ फलक संस्तरणादिभिर्धर्मोपकरणस्तत्प्रतीकारः (ङ) दशविधे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा-आयरियसम्यक्त्व प्रत्यवस्थापनमित्येवमादि वैयावृत्त्यम् । वेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे थेरवेयावच्चे, बाह्यस्पौषधभक्तपानादेरसंभवेऽपि स्वकायेन तवस्सिवेयावच्चे, गिलाणवेयावच्चे, सेहवेयावच्चे प्रलेष्मसिंघाणकाद्यन्तर्मलापकर्षणादि तादानु कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, कुल्यानुष्ठानं च वैयावृत्त्यमिति कथ्यते।। साहम्मियवेयावरचे ? --राजवात्तिक, ९/२४/१५-१६/६२३/३१ -स्थानाङ्ग सूत्र, १०/१७ (च) से कि वेयावच्चे ? वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते, (घ) जो उवयरदि जदीण उवसग्ग जराइ खीर तं जहा......"से तं वेयावच्चे। कायाणं । पूषादिसु णिरवेक्ख वेज्जावच्चं -भगवती सूत्र, २५/७/१४२ तवो तस्स ॥ (छ) औपपातिक सूत्र, २० -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूलगाथा ४५६ ७५. (क) तत्त्वार्थ सूत्र, ५/२१ (ङ) कायापीडा दुष्परिणामव्यूदासार्थ कायचेष्ट्या (ख) जैनधर्म में तप । स्वरूप और विश्लेषण द्रव्यान्तरेणोपदेशेन च व्यावृत्तस्य यत्कर्म -लेखक-मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज, तद्वं यावृत्त्यं । -चारित्रसार, १५०/३ पृष्ठ ४४०-४४१ (च) अनगार धर्मामृत, ७/७०/७११ ७६. (क) सुष्ठ आ-मर्यादया अधीयते इति स्वाध्याय । (छ) गुणवद् दुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तद -स्थानाङ्ग अभयदेववृत्ति, ५/३/४६५ पहरणं वैयावृत्त्यम् । (ख) अज्झयणम्मि रओ सया-अज्झयणं सज्झाओ -सर्वार्थसिद्धि, ६/२४/३३६/३ भण्णइतम्मि सज्झाए सदा रतो भविज्जति । (ज) जैन-धर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण -दशवकालिक, जिनदासचूर्णि, २८७ लेखक-मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज, पृष्ठ (ग) स्वाध्याये-वाचनादो। ४२२-४२३ -दशवकालिक हरिभ० वृत्ति, २३५ (घ) स्वस्मैहितोऽध्यायः स्वाध्यायः । ७३. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, २६/३ -चारित्रसार, १५२ (ख) स्थानाङ्ग सूत्र, ५/१ (ङ) स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मारणं (ग) ताए एवं विहाए एक्काए (वेज्जावच्च जोगजुत्त च। -चारित्रसार, ४४ दाए)। -धवला, ८/३, ४१/८८/१० (च) अनगार धर्मामृत, ७/८२ (घ) वैयावृत्त्यकरस्तु स्वं परं चोदरतीतिमन्यते । (छ) बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधः । -भगवती आराधना, मू० व वि० ३२६/५४१ -मूलाचार, ४४ ७४. (क) गुणधीए उवज्झाए तवस्सिसिस्से य दुब्बले । (ज) अगगबाहिर-आगम-वायण-पुच्छणाणुपेहा-परियट्टण साहुगणे कुलसंघे समणण्णे य चापदि । धम्मकहाओ सज्झाओ णाम । -मूलाचार गाथाङ्क, ३६० -धवला, १३/५,४,२६ तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | १०७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHI म ममममम साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ (झ) पूयादिसु गिरवेक्खो जिण-सत्थं जो पठेइ भत्ती। (ख) चित्तावत्थाणमेवा वत्थुम्मि, छउमत्थाणं झाणं । कम्ममल सोहणठंसुय-लाहो सुहयरो तस्स ।। ----ध्यानशतक, गाथा ३ -कातिकेयानप्रेक्षा, ४६२ (ग) ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेक प्रत्यय संतितः । ७७. चारित्रसार, पृष्ठ ४४; पक्ति ३ -अभिधान चिन्तामणिकोष, आचार्य हेमचन्द्र, ७८. (क) मूलाचार, गाथांक ३६३ १/४८ (घ) चित्तस्सेगग्गया हवई झाणं । (ख) प्रच्छन्न संशयोच्छित्य निश्चित-दृढनाम वा । प्रश्नोऽधीति प्रवृत्त्यर्थत्वादधीतिरसावपि ।। -आवश्यकनियुक्ति, १४५६ (ङ) यत्युननिमेकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित । अस्तितर -अमगार धर्मामृत, ७/८४ ध्यानमत्रापिक्रमोनाप्यक्रमोऽर्थतः । (ग) पंचविहे सज्झाए पण्णत्ते, तं तहा-वायणा, -पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, ८४२ पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा। (च) एकाग्र ग्रहणं चात्र वैयग्र्यविनिवृत्तये । व्यग्रं हि -स्थानाङ्ग, ५/२२० ज्ञानमेवस्याद् ध्यानमेकाग्रमुच्यते । (घ) वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । -तत्त्वानुशासन, ५६ -तत्त्वार्थसूत्र 8/२५ (छ) चित्त विक्षेपत्यागो ध्यानम् । (ङ) भगवती सूत्र, २५/७ -सर्वार्थसिद्धि, ६/२० ७९. धवला, पुस्तक सख्या ६, खण्ड ४, भाग १, गाथा ६१. यथामानसिकं ध्यायमेकान निश्चलं मनः । .... ८०. स्थानाङ्ग सूत्र, अध्याय ४ गाथा ३ दृष्टां वर्जयतो ध्यानं वाचिकं कथितं जिनः॥ ८१. आवश्यकनियुक्ति, ६१ -लोकप्रकाश, ४२१-४२२ ८२. आवश्यकनियुक्ति, ६८ ६२. भारतीय योगसाधना में ध्यान ८३. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २६, गाथा २८ लेखक-राजीव प्रचंडिया, एडवोकेट, तुलसी प्रज्ञा, (ख) बहुभवे संचियं खलु सज्झाएण खणे खवई। ____अंक ११-१२, फरवरी-मार्च, १९८२, पृष्ट ६७ -चन्द्रप्रज्ञप्ति ६१ ६३. उत्तराध्ययन सूत्र, ३०/४ ८४. सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणो। ६४. (क) तत्त्वार्थसूत्र, ६/२० -उत्तराध्ययन सूत्र, २६/१० (ख) मूलाचार, ३६० ८५. भगवती आराधना, मूल, गाथा संख्या १०४ ६५. (क) भगवती सूत्र, २५/७/१३ ८६. तिलोयपण्णत्ति, अधिकार संख्या १, गाथा ५१ (ख) आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि -तत्वार्थसूत्र, 8/२८ ८७. सर्वार्थसिद्धि, अ०६, सू० २५, पृष्ठ ४४३ (ग) भगवती आराधना मूल, १६६६-१७०० ८८. आत्मानुशासन, श्लोक १८६ (घ) अनगारधर्मामृत, ७/१०३/७२७ ८९. 'स्वाध्याय : एक उत्कृष्ट तप लेखक-राजीव ९६. (क) तत्रात बाह्याध्यात्मिक भेदात् द्विविकल्पम् । प्रचंडिया, एडवोकेट, स्वाध्याय प्रेमी स्मृति अंक -चारित्रसार, १६७, १७०, १७२/३ (जयगुजार मासिक) अक्टूबर-नवम्बर १९८०, चतुर्थ (ख) भगवती सूत्र, १५/७/१४५-१४६-१४७-१४८ अध्याय, पृष्ठ ८७ (ग) ज्ञानार्णव, २५ ६०. (क) "एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम् ।........ (घ) महापुराण, २१/३१ -तत्त्वार्थसूत्र, ६/२७ (ङ) द्रव्यसंग्रह, ४८ १०८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य SEE www.jainel HJ RE Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " . . . . . I . . . . साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ -IRUITM TARIANDITATION . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . a ni ASRAM (च) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 475-476 (च) जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो / ... (छ) तत्त्वानुशासन, 47-46 ....... देहेविणिम्ममत्तो काओसग्गो ताओ तस्स / / (ज) स्थानाङ्ग 4/65-71 -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 467-468 (झ) राजवार्तिक, 1/7/14 102. आवश्यकनियुक्ति, 1546 (त) हरिवंश पुराण, 56/38-50 103. जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण (थ) धवला, 13/5,4,26 लेखक-मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज, पृ० 523 (द) मूलाचार, 368 97. (क) समवायांग, १४वां समवाय 104. (क) से किं दव्वविउसग्गे ? सरीरविउसग्गे, उवहि (ख) समयसार, गाथाङ्क 55 विउसग्गे, भत्तपाण विउसग्गे। से तं दव्व 18. (क) कर्मग्रन्थ, 4/2 विउसग्गे। -भगवती सूत्र, 25/7/150 (ख) समवायाङ्ग, 14/1 (ख) से कि ते भावविउसग्गे ? भावविउसग्गे (ग) गोम्मटसार, गाथा 12/13 तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-कसायविउसग्गे, 66. भारतीय योगसाधना में ध्यान, लेखक-राजीव संसारविउसग्गे, कम्मविउसग्गे। प्रचंडिया एडवोकेट, तुलसीप्रज्ञा, अंक-११-१२, -भगवती सूत्र, 25/7/151 फरवरी, मार्च 1982 (ग) बाह्याभ्यन्तरोपध्योः / 100. (क) नि:संग-निर्भयत्व जीविताशा व्यूदासाद्यर्थो –तत्त्वार्थसूत्र, 6/26 व्युत्सर्गः / -तत्त्वार्थ राजवात्तिक, 9/26/10 (घ) तत्त्वार्थसार, 7/26 (ख) बाह्यास्यन्तरदोषा ये विविधाः बन्धहेतवः / (ङ) मूलाचार, 406 येस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्यूत्सगों निरुच्यते // (च) चारित्रसार, 154-155 -अनगार धर्मामृत, 7/64 105. (क) अमितगति श्रावकाचार, 8/57-61 (ग) सरीराहेसु हु मणवयण पवुत्तीओ ओसारियज्झे (ख) मूलाचार, 673-677 यम्मि। एयग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम // (ग) आवश्यकनियुक्ति, गाथा, 1456-1460 -धवला, 8/3,41/85 (घ) सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवित / 101. (क) कायापरदब्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं / दव्वतो कायचेट्ठानिरोहो भावतो काउस्सग्गो तस्स हवे तणु सग्गं जो झावइणिव्वि अप्पेण / / झाणं // -नियमसार, 121 -आवश्यकचूर्णि (ख) नियमसार, तात्पर्याख्यावृत्ति, 70 (ङ) धर्म-दर्शन : मनन और मूल्यांकन (ग) परिमितकाल विषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः लेखक-देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ० 128 कायोत्सर्गः। -राजवात्तिक, 6/24/11 106- आत्माऽऽत्मीय संकल्पत्यागो व्यत्सर्गः। कायो त्सर्गादिकरणं व्युत्सर्ग: / व्यसर्जनम-व्युत्सर्गस्त्यागः / (घ) देहे ममत्व निरासः कायोत्सर्गः / -सर्वार्थसिद्धि, 9/20-22-26 -भगवती आराधना वि० 6/32 (ङ) देवस्सियणियमादिसु जहत्त माणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणा चिन्तण जुत्तोकाओसग्गो तणुविस्सगो। -मूलाचार, 28 तप:साधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | 106 कीaaman