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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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अथवा एक वर्ष की अवधि तक का होता है 26 बहारत्याग अवधि की इस निश्चितता और अनिश्चितता के आधार पर अनशन के दो भेद जैनागम में किये गये हैं-एक इत्वfरक और दूसरा यावत्कालिक 27 इत्वरिक में आहार-त्याग की सीमा निर्धारित निश्चित रहती है अर्थात् भोजन की आकांक्षा सीमा समाप्ति के बाद बनी रहती है। यह सावकाश, इतिरिय, अवधूतकाल, अद्धानशन, उपवास आदि संज्ञाओं में अभिहित है । जबकि यावत्कालिक में सीमाधि नहीं रहती है, इसमें पुनः आहार ग्रहण करने की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। यह भी यावज्जीव, यावत्क थिक, यावज्जीवित, अनवधूत काल, सर्वानशन, सकृदक्ति आदि नामों में उल्लिखित है इरिक और यावत्कालिक अनशन के अनेकानेक प्रभेद जैनागम में स्पष्टतः परिलक्षित हैं 1 36 जो आहार त्यागने की सीमा और प्रवृत्ति को दर्शाते है।
आहार त्यागने का मूलो एव शरीर से उपेक्षा, अपनी मूलोद्देश्य चेतनवृत्तियों को भोजनादि के बन्धनों से मुक्त करना, क्षुधादि में साम्बरस से च्युत न होना अर्थात् सर्व प्रकार की इच्छा - आसक्ति के त्यागने से रहा है । शरीर एवं प्राणों के प्रति ममत्व भावों का विसर्जन अर्थात् समस्त तृष्णाओं का समापन तथा अन्तरंग में विषय-विकारों / कर्म- कषायों से विमुक्ति / निर्जरा एवं आत्मबल की वृद्धि हेतु आहार का त्याग परमापेक्षित है 30 निश्चय ही आहार त्याग से प्राण-मन इन्द्रिय संयम की सिद्धि होती है जिससे संसारी प्राणी समस्त पापक्रियाओं से मुक्त होकर, सम्पूर्ण अहिंसादिव्रत का पालन करता हुआ महाव्रती बनता है । 31
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२. कनोदरी
में
जैन दर्शन की मान्यतानुसार शरीर मोक्ष - साधना के लिये बना है, भोगवासभा के लिये नहीं, अस्तु आत्म-विकास भूख की अपेक्षा हूक की आवश्यकता रहती है। इस तप का अर्थ भी यही है - आहारादि, कषायादि, उपकरणादि तथा वस्तुसंग्रहादि की कमी करना / रखना अर्थात् कम से कम परिग्रह करना अर्थात् तृप्ति करने वाला तथा दर्प उत्पन्न करने वाला ऐसा जो आहार, उसका मन, वचन, कायरूप तीनों योगों से त्याग करना 132 जिससे आत्मसाक्षात्कार अर्थात् वीतराग मार्ग में कोई किसी भी प्रकार का व्यवधान बाधा उत्पन्न न हो सके । योगपरक जीवन चर्या में साधक की संग्रह / इच्छावृत्ति के संयमन के आधार पर इस उनोवरी / अवमौदर्य / अवमोदरिका तप के अनेक भेद-प्रभेद जैनागमो में वर्णित हैं । 36 वास्तव में यह तप संयम साधना / संकल्प -साधना के लिये किया जाता है 137 संयम से मन- इन्द्रियजन्य व्यापार अर्थात् कषायजन्य विकार ( काम-क्रोध-मान- माया - लोभ) शिथिल हुआ करते हैं। स्पष्ट है कि मन और इन्द्रियों को संयत किये बिना और लालसाओं को वश में किये बिना न व्यक्ति के जीवन में तुष्टि आ सकती है और न समाज, राष्ट्र या विश्व में ही शान्ति स्थापित हो सकती है । निश्चय ही यह संयमवृत्ति जीवन जीने की कला का मार्ग करती है। यह संयम आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रस्तुत साथ-साथ व्यावहारिक क्षेत्र अर्थात् आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी परम उपयोगी एवं कल्याणकारी प्रमाणित हुआ है । यह निश्चित है कि संयम के अभाव में एक दूसरे को हड़पने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी जिससे भय, अशान्ति, संघर्ष नये-नये रूपों में जन्म लेकर विकसित होते
तपः साधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान राजीव प्रचडिया | ९३
मानसिक विकारों से दूर रह सकता है। जो अनशन वयक्तिक अधिकारों का हनन अथवा अन्याय शोषण घटित होने पर किया जाता है, उसे जागतिक अनशन कहा जाता है । इसमें विवशता का प्राधान्य रहता है जबकि आध्यात्मिक साधना में अनशन अन्तश्चेतना को जाग्रत करता है। आत्म-विकास साधना का यह पहला चरण निश्चय ही वह मजबूत आधारशिला है जिस पर चढ़कर साधक निर्बाध रूप से आगे बढ़ता है ।
आहारत्याग अर्थात् अनशन आध्यात्मिक जीवन में / साधना के क्षेत्र में तो उपयोगी है ही, साथ ही अनेकानेक सांसारिक समस्याओं के निराकरण का एक अमोघ साधन भी है। हिंसा, आक्रोश, द्वेष, राम की वह्नि घर समाज, राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो आज प्रज्वलित है, उसका मूल कारण है अनशन तप की अनुपस्थिति यह निश्चित है कि व्यक्ति का उदर अन्न के अभाव में अथवा अन्न की अतिरेकता में अपराध, संक्लेश, अनैतिक तथा अपवित्रपूर्ण जीवन जीने को बाध्य करता है । इस अनशन तप से व्यक्ति भूख पर तो विजय प्राप्त कर ही लेता है साथ ही
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