Book Title: Tapa Sadhna aur Aaj ki Jivanta Samasyao ke Samadhan
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 5
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जायेंगे साथ संयम की प्रवृत्ति तथा अनावश्यक संचय वृत्ति की कमी आज के अर्थ वैषम्यजनित सामाजिक समस्याओं का एक सुन्दर समाधान है। राष्ट्रपिता का यह कचन कि "पेट भरो, पेटी नहीं," इस तप के व्यावहारिक रूप की सार्थकता से अनुप्राणित है । स्वास्थ्य की दृष्टि से भी आवश्यकता से कम किन्तु उससे अधिक पचाया गया प्रकृति अनुरूप भोजन व्यक्ति को आरोग्य बनाता है। 88 यह निश्चित है कि इस तप के परिपालन से व्यक्ति नीरोगस्वस्थ रहता हुआ सम्यक् आराधना कर आनन्दसीमा को स्पर्श कर सकता है । आज जहाँ एक ओर विकास के नाम पर मात्र भोग और शोक हेतु सुन्दर से सुन्दरतम आकर्षक फैशनेबुल वस्त्रों उपकरणों, साज-सज्जा के सामान, शारीरिक सौन्दर्य प्रसाधन हेतु लिपस्टिक, क्रीम पाउडर आदि तथा चमड़े से विनिर्मित वस्तुओं का प्रयोग, घोग-उपभोग, जिनसे न केवल तियंचगति के अनगिनत जीवधारियों / प्राणधारियों का हनन ही होता है, अपितु इन चीजों के सेवन करने वाले स्वयं अनेक आपदाओं-विपदाओं तथा मानसिक-शारीरिक विकारों / तनावों / कष्टों से ग्रसित होते हों, वहाँ तप का यह ऊनोदर भाव कितना सार्थक प्रतीत होगा, यह कहने की नहीं, अपितु अनुभवगम्य है । निश्चय ही इनमें उलझे व्यक्तियों को यह तप राहत देगा तथा एक नयी दिशा दर्शाएगा । ३. भिक्षाचरी , साधना के क्षेत्र में व्यक्ति को भोजन की कम, भजन की आवश्यकता अधिक रहती है । वृत्तिपरिसंख्यान / वृत्तिसक्षेप 40 / भिक्षाचर्या अथवा भिक्षावरी 41 नामक तप में भोजन, भाजन आदि विषयों से सम्बन्धित रागादिक दोषों के परिहार्य हेतु व्यक्ति आत्म-विकास की साधना करता है । साधना में शरीर व्यवधान उत्पन्न न करे इसके लिये साधक को अभिग्रह अर्थात् नियम- प्रतिज्ञा-संकल्पादि या सन्तोष वृत्ति समताभाव के साथ विधिपूर्वक निर्दोष आहार / भिक्षाग्रहण करना होता है। 42 भोजन / आहार में संकल्पादि, परिमाण, संख्यादि-नियमादि के आधार पर जैनागम में इस तप के अनेक भेद-प्रभेद स्थिर किये गये हैं। 48 'भिक्षाचरी' शब्द श्वेताम्बर परम्परा में गोचरी" / ९४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य Aaronal मधुकरी 45 से सम्बोधित किया जाता है। जिस प्रकार गाय स्थान-स्थान पर सूखा- हरा चारा बिना भेदभाव के चरती जाती है तथा भ्रमर पुष्प को बिना क्षति पहुँचाए, अपना भोजन / पराग ग्रहण करता चलता है, उसी प्रकार श्रमण साधक भी भोजन-विशेष के प्रति ममत्व भाव न रखते हुए मात्र साधना हेतु शरीर संचालन हो सके इस भावना के साथ अपनी उदर पूर्ति करता है । इस तप का दिन-प्रतिदिन किये जाने का निर्देश जैनधर्म में स्पष्टत: परिलक्षित है क्योंकि इससे साधक आहार कम करता हुआ शरीर को कृशकर संलेखना धारण करता है। भिक्षाचरी का एक ही उद्देश्य है कि साधक में भोजन / आहार के प्रति राग की शनैः शनैः कम होते जाने की प्रवृत्ति और यह वृत्ति साधक के स्वयं भीतर के प्रस्फुटित होती है, किसी बाह्य विवशता से नहीं । वास्तव में इस तप के माध्यम से व्यक्ति-व्यक्ति में आहार / भोजन पर जय-विजय प्राप्त करने की शक्ति जाग्रत होने लगती है । फिर साधक का ध्यान भोजन, नाना व्यंजनों-पकवानों में नहीं, साधना के विविध आयामों में रमण करता है । ४. रस परिश्याच इन्द्रियनिग्रह हेतु, आलस्य - निद्रा पर विजय प्राप्त्यर्थं तथा सरलता से स्वाध्याय-सिद्धि के लिये सरस व स्वादिष्ट, प्रीतिवर्धक तथा स्निग्ध आदि भोजन का मनसा वाचा कर्मणा के साथ यथासाध्य त्याग, रस-परित्याग तप कहलाता है । 42 तप:साधना में रस, विकृति, चंचलता अर्थात् उत्तेजना उत्पन्न कर साधक के लक्ष्य में नाना प्रकार के व्यवधान उत्पन्न करते हैं । साधना के मार्ग में इनसे अवरुद्धता आती है । अस्तु रस अर्थात् दूध, दही, घी, तेल, गुड़ आदि साधना के लिये सर्वधा त्याज्य हैं। 8 निश्चय ही ये रस विकृति एवं विगति के हेतु हैं । 49 इन रसों के त्यागने की विधि-नियम- प्रक्रिया संख्यादि के आधार पर यह तप जैनागम में अनेक भागों में विभाजित किया गया है 150 आज जहाँ एक ओर भक्ष्य-अभक्ष्य का ध्यान न रखते हुए अभक्ष्य अर्थात् माँस, अण्डे, मय (शराब), धूम्रपान आदि का सेवन, आधुनिक अत्याधुनिक साज-सज्जा से सुसज्जित, सुख-सुविधाओं से संपृक्त, आकर्षक खर्चीले होटलों में खाने

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