Book Title: Tapa Sadhna aur Aaj ki Jivanta Samasyao ke Samadhan Author(s): Rajiv Prachandiya Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 9
________________ ● साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ कल्याणकारी होगा। निश्चय ही इससे सुखी-समृद्ध तथा उल्लास का वातावरण उत्पन्न होगा जिसका यत्र-तत्रसर्वत्र अभाव है । १०. स्वाध्याय " सत् शास्त्रों का मर्यादापूर्वक विधि सहित अध्ययन, अनुचितन तथा मनन अर्थात् आत्मा का हित / कल्याण करने वाला अध्ययन अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र को आराधना करना, स्वाध्याय कहलाता है । 76 आत्म-कल्याण के लिये ज्ञान की आराधना अपेक्षित है। इसलिये तत्वज्ञान का पठन-पाठन तथा उसका स्मरण आदि बातें स्वाध्याय की कोटि में आती हैं।" जैनागम में इसके अनेक प्रकार दर्शाये गये हैं। स्वाध्याय के विषय में जैनागमों में यह स्पष्ट किया है कि स्वाध्याय का प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधि से तथा योग्य द्रव्य, क्षेत्र व काल में ही किया जाना श्रेयस्कर रहता है, अन्यथा वह अलाभ, कलह, व्याधि तथा वियोग उत्पन्न करता है 179 यह परम सत्य है कि स्वाध्याय से बुद्धि में तीक्ष्णता, निर्मलता आती है, इन्द्रियों और मन को वश में करने की क्षमता विद्यमान रहती है। वास्तव में स्वाध्याय में सम्यक्त्व की प्रधानता रहती है। वह निश्चित सिद्धान्त है कि जो मनुष्य आलसी और प्रमत्त होते हैं, न उनकी प्रज्ञा बढ़ती है और न ही उनका भूत (शास्त्र- ज्ञान ) ही बढ़ पाता है। जैनाचायों ने शास्त्राध्ययन के लिये अविनीत, चटोरा, झगड़ालू और धूर्त लोगों को अयोग्य बताया है 180 इसका मूल कारण है कि वह आगमपाठी जो चारित्र गुण से हीन है, आगम ( शास्त्र) को अनेक बार पढ़ लेने पर भी संसार-समुद्र में डूब जाता है चरि स्वाध्याय का एक महत्वपूर्ण अंग है । सच्चरित्र साधक के लिये शास्त्र का थोड़ा सा अध्ययन भी कल्याणकारी होता है 182 स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादित करने वाले) कर्म क्षय हो जाते हैं । 83 समस्त दुःखों का समापन सहज में ही हो जाता है । 84 निश्चय ही स्वाध्यायी साधक अपनी पंच इन्द्रियों का संवर करता है, मन आदि गुप्तियों को भी पालने वाला होता है और एकाग्रचित्त हुआ विनय २८ | चतुर्थ खण्ड: जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य से संयुक्त होता है । प्रवचन के अभ्यास से अर्थात् परमागम के पढ़ने पर सुमेरु पर्वत के समान निष्क्रम्पनिश्चल, आठ मल रहित, तीन मूढ़ता ( लोकमूढ़तादेवमूढ़ता-गुरुमूढ़ता ) रहित सम्यग्दर्शन होता है, उसे देव, मनुष्य तथा विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं और अष्ट कर्मों के उन्मूलित होने पर प्रवचन के अभ्यास से ही विशद सुख भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय तप के द्वारा प्रज्ञा में अतिशय, अध्यवसाय, प्रशस्ति, परम संवेग, तपवृद्धि व अतिचार-शुद्धि आदि भी प्राप्ति होती है। , स्वाध्यायतप में फलेच्छा के निषेध का भी जैनागमों में स्पष्ट उल्लेख है । समस्त आगम का अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण करके भी यदि प्राणी सम्पत्ति आदि का लाभ तथा प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो निश्चय ही यह विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्ष के फूल को ही नष्ट कर देता है जिसके द्वारा सुन्दर व सुस्वादु पके हुये रसीले फल प्राप्त हुआ करते हैं । 88 जो प्राणी केवल कर्म-मुक्ति की इच्छा से स्वाध्याय तप करते हैं, जिनमें इस लोक के फल की इच्छा बिल्कुल नहीं होती, उन्हें शान-लाभ होता है । साथ ही उन्हें आत्म शुद्धि का स्थायी सुख भी सहज में ही प्राप्त हो जाता है । निश्चय ही लोकेषणा से रहित स्वाध्याय आत्मोपयोगी होता है । आज समाज, देश राष्ट्र में ज्ञान-कुन्दता, परिहास क्षण-क्षण में उत्तेजना वासनादि, कलुषित वृत्तियाँ, द्वेष, घृणा, ईर्ष्यादि चारों ओर आच्छादित हैं उसका मूल कारण है सही दिशादर्शन का अभाव । किसी भी समाज का, राष्ट्र का मेरुदण्ड उसका युवावर्ग हुआ करता है। आज युवा समुदाय की मानसिक भूख की खुराक साहित्यिक- स्वाध्याय की अपेक्षा सस्ता बाजारू, अश्लील, तामसी राजसी वृत्तियों को उद्रेक करने वाला साहित्य है । जबकि सत् साहित्य के सतत् स्वाध्याय से व्यक्ति के ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र बढ़ता / फैलता है। साथ ही सद्-विचार, सद्संस्कार, अनन्त आनन्द, निर्विकारिता, एकाग्रता, चित्त की स्थिरता निर्मलता संकल्पस्थिरता का प्रादुर्भाव होता है । निश्चय ही स्वाध्याय एक एक उत्कृष्ट तप कहा जाएगा। 89 ११. ध्यान मन के चिन्तन का एक ही वस्तु / आलम्बन पर www.jaineliturePage Navigation
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