Book Title: Tao Upnishad Part 01 Author(s): Osho Rajnish Publisher: Rebel Publishing House Puna View full book textPage 5
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free गरमी आती है, फिर वर्षा आ जाती है, फिर शीत आ जाती है, फिर गरमी आ जाती है। एक वर्तुल है। वर्तुल घूमता चला जाता है। बचपन होता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत आ जाती है। एक वर्तुल है, वह घूमता चला जाता है। सुबह होती है, सांझ होती है, रात होती है, फिर सुबह हो जाती है। सूरज निकलता है, डूबता है, फिर उगता है। एक वर्तुल है। जीवन की एक गति है वर्तुलाकार। उस गति को चलाने वाला जो नियामक तत्व है, उसका नाम है ऋत। ध्यान रहे, ऋत में किसी ईश्वर की धारणा नहीं है। ऋत का अर्थ है नियामक तत्व; नियामक व्यक्ति नहीं। नॉट परसन, बट प्रिंसिपल। कोई व्यक्ति नहीं जो नियामक हो, कोई तत्व जो नियमन किए चला जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं कि नियमन किए चला जाता है, क्योंकि इससे व्यक्ति का भाव पैदा होता है। नहीं, जिससे नियमन होता है, जिससे नियम निकलते हैं। ऐसा नहीं कि वह नियम देता है और व्यवस्था जुटाता है। नहीं, बस उससे नियम पैदा होते रहते हैं। जैसे बीज से अंकुर निकलता रहता है, ऐसा ऋत से ऋतुएं निकलती रहती हैं। ताओ का गहनतम अर्थ वह भी है। लेकिन फिर भी ये कोई भी शब्द ताओ को ठीक से प्रकट नहीं करते हैं। क्योंकि जो-जो इनको अर्थ दिया जा सकता है, ताओ उससे फिर भी बड़ा है। और कुछ न कुछ पीछे छूट जाता है। शब्दों की जो बड़ी से बड़ी कठिनाई है, वह यह है कि सभी शब्द द्वैत से निर्मित हैं। अगर हम कहें रात, तो दिन पीछे छूट जाता है। अगर हम कहें प्रकाश, तो अंधेरा पीछे छूट जाता है। अगर हम कहें जीवन, तो मौत पीछे छूट जाती है। हम कुछ भी कहें, कुछ सदा पीछे छूट जाता है। और जीवन ऐसा है-संयुक्त, इकट्ठा। वहां रात और दिन अलग नहीं हैं। और वहां जन्म और मृत्यु अलग नहीं हैं। और वहां बच्चा और बूढ़ा दो नहीं हैं। और वहां सर्दी और गरमी दो नहीं हैं। और वहां सुबह सूरज का उगना सांझ का डूबना भी है। जीवन कुछ ऐसा है-संयुक्त, इकट्ठा। लेकिन जब भी हम शब्द में बोलते हैं, तो कुछ छूट जाता है। कहें दिन, तो रात छूट जाती है। और जीवन में रात भी है। तो अगर हम कहें कोई भी एक शब्द-यह है ताओ, यह है मार्ग, यह है धर्म, यह है ऋत-बस हमारे कहते ही कुछ पीछे छूट जाता है। समझ लें, हम कहते हैं, नियम। नियम कहते ही अराजकता पीछे छूट जाती है। लेकिन जीवन में वह भी है। नियम कहते ही वह जो अनार्किक, वह जो अराजक तत्व है, वह पीछे छूट जाता है। नीत्शे ने कहीं लिखा है कि जिस दिन अराजकता न होगी उस दिन नए तारे कैसे निर्मित होंगे? जिस दिन अराजकता न होगी उस दिन नया सृजन कैसे होगा? क्योंकि सृष्टि तो जन्मती है अराजकता से, केऑस से। आउट ऑफ केऑस इज़ क्रिएशन। अगर केऑस न होगा, अराजकता न होगी, तो सृष्टि का जन्म न होगा। और अगर सृष्टि अकेली हो, तो फिर समाप्त न हो सकेगी, क्योंकि उसे समाप्त होने के लिए फिर अराजकता में डूब जाना पड़े। जब हम कहते हैं नियम, प्रिंसिपल, तब अराजकता पीछे छूट जाती है। वह भी जीवन में है। उसे छोड़ने का उपाय जीवन के पास नहीं है, शब्दों के पास है। इसलिए हम कहते हैं ऋत, तो भी कुछ पीछे छूट जाता है; वह अराजक तत्व पीछे छूट जाता है। जो घटता है और फिर भी नियम के भीतर नहीं घटता। इस जीवन में सभी कुछ नियम से नहीं घटता है; नहीं तो जीवन दो कौड़ी का हो जाएगा। इस जीवन में कुछ है जो नियम छोड़ कर भी घटता है। सच तो यह है, इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह नियम छोड़ कर घटता है। जो भी गैर-महत्वपूर्ण है, वह नियम से घटता है। इस जीवन में जो भी गहरी अनुभूतियां हैं, वे किसी नियम से नहीं आती-अकारण, अनायास, अनायाचित द्वार पर दस्तक दे देती हैं। जिस दिन किसी के जीवन में प्रभु का आना होता है, उस दिन वह यह नहीं कह पाता कि मैंने यह-यह किया था, इसलिए तुम्हें पाया। उस दिन वह यही कह पाता है कि कैसी तुम्हारी दया! कैसी तुम्हारी अनुकंपा! मैंने कुछ भी न किया था; या जो भी किया था, अब मैं जानता हूं, उसे तुमसे पाने से कोई भी संबंध न था; यह तुम्हारा आगमन कैसा! यह तुम आ कैसे गए! न मैंने कभी तुम्हें मांगा था, न मैंने कभी तुम्हें चाहा था, न मैंने तुम्हें कभी खोजा था। या मांगा भी था, तो कुछ गलत मांगा था; और खोजा भी था, तो वहां जहां तुम नहीं थे; और चाहा भी था, तो भी माना न था कि तुम मिल जाओगे। और यह तुम्हारा आगमन! और जब प्रभु का आगमन होता है किसी के जीवन में, तो उसका किया हुआ कहीं भी तो कुछ संबंध नहीं बना पाता। अनायास! इस जीवन में सभी कुछ नियम होता, तो हम कह सकते थे, ताओ का अर्थ है ऋत। लेकिन इस जीवन में वह जो नियम के बाहर है, वह रोज घटता है; हर घड़ी-पहर, अनायास भी, अकारण भी, वह मौजूद हो जाता है। न, उसे भी हम जीवन और अस्तित्व के बाहर न छोड़ पाएंगे। इसलिए अब हम ताओ को क्या कहें? तो लाओत्से अपना पहला सूत्र कहता है। उस सूत्र में वह कहता है, "जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह सनातन, अविकारी पथ नहीं है।' जिस पथ पर विचरण किया जा सके! अब पथ का अर्थ ही होता है कि जिस पर विचरण किया जा सके। लेकिन लाओत्से कहता है, जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह नहीं; जिस पर आप चल सकें, वह नहीं। फिर अगर जिस पर हम चल ही न सकें, उसे पथ कहने का क्या प्रयोजन? हम चल सकें तो ही पथ है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेजPage Navigation
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