Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 9
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free लाओत्से कहता है, जिसका सुमिरण किया जा सके, वह उसका नाम नहीं है। और जिसका सुमिरण किया जा सके, वह समय के पार नहीं ले जाएगा। समय के पार वही वस्तु जा सकती है जो सदा समय के पार है ही। कालातीत वही हो सकता है जो कालातीत है ही। समय के भीतर जो पैदा होता है, वह समय के भीतर नष्ट हो जाता है। अगर आप कह सकते हैं कि मैंने पांच बज कर पांच मिनट पर स्मरण किया प्रभु का, तो ध्यान रखना, यह स्मरण समय के पार न ले जा सकेगा। जो समय के भीतर पुकारा गया था, वह समय के भीतर ही गूंज कर समाप्त हो जाएगा। और परमात्मा समय के बाहर है। क्यों? क्योंकि समय के भीतर सिर्फ परिवर्तन है। और परमात्मा परिवर्तन नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो समय का अर्थ है परिवर्तन। कभी आपने खयाल किया कि आपको समय का पता क्यों चलता है? सच तो यह है कि आपको समय का कभी पता नहीं चलता, सिर्फ परिवर्तन का पता चलता है। इसे ऐसा लें। इस कमरे में हम इतने लोग बैठे हैं। अगर ऐसा हो जाए कि वर्ष भर हम यहां बैठे रहें और हममें से कोई भी जरा भी परिवर्तित न हो, तो क्या हमें पता चलेगा कि वर्ष बीत गया? कुछ भी परिवर्तित न हो, एक वर्ष के लिए यह कमरा ठहर जाए, यह जैसा है वैसा ही वर्ष भर के लिए रह जाए, तो क्या हमें पता चल सकेगा कि वर्ष भर बीत गया? हमें यह भी पता नहीं चलेगा कि क्षण भर भी बीता। क्योंकि बीतने का पता चलता है चीजों की बदलाहट से। असल में, बदलाहट का बोध ही समय है। इसलिए जितने जोर से चीजें बदलती हैं, उतने जोर से पता चलता है। आपको दिन का जितना पता चलता है, उतना रात का नहीं पता चलता। एक आदमी साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। लेकिन बीस साल का कोई एकाउंट है? बीस साल का कुछ पता है? बीस साल साठ साल में आदमी सोता है। पर बीस साल का कोई हिसाब नहीं है। बीस साल का कोई पता नहीं चलता; वे नींद में बीत जाते हैं। वहां चीजें कुछ थिर हो जाती हैं। उतने जोर से परिवर्तन नहीं है, सड़क उतने जोर से नहीं चलती, ट्रैफिक उतनी गति में नहीं है। सब चीजें ठहरी हैं। आप अकेले रह गए हैं। अगर एक व्यक्ति को हम बेहोश कर दें और सौ साल बाद उसे होश में लाएं, तो उसे बिलकुल पता नहीं चलेगा कि सौ साल बीत गए। जाग कर वह चौंकेगा। और अगर वह ऐसी ही दुनिया वापस पा सके जैसा वह सोते वक्त पाई थी उसने-वही लोग उसके पास हों; वही घड़ी-कांटा वहीं हो दीवार पर लटका हुआ; बच्चा स्कूल गया था, अभी न लौटा हो; पत्नी खाना बनाती थी, उसके बर्तन की आवाज किचन से आती हो; और वह आदमी जगे-तो उसे बिलकुल पता नहीं चलेगा कि सौ साल बीत गए। समय का बोध परिवर्तन का बोध है। चूंकि चीजें भाग रही हैं, बदल रही हैं, इसलिए समय का बोध होता है। इसलिए जितने जोर से चीजें बदलने लगती हैं, उतनी टाइम कांशसनेस, समय का बोध बढ़ने लगता है। पुरानी दुनिया में समय का इतना बोध नहीं था। चीजें थिर थीं। करीब-करीब वही थीं। बाप जहां चीजों को छोड़ता था, बेटा वहीं पाता था। और बेटा फिर चीजों को वहीं छोड़ता था जहां उसने अपने बाप से पाया था। चीजें थिर थीं। अब कुछ भी वैसा नहीं है। जहां कल था, आज नहीं होगा; जहां आज है, कल नहीं होगा। सब बदल जाएगा। इसलिए समय का भारी बोध। एक-एक पल समय का कीमती मालूम पड़ता है। समय में जो भी पैदा होगा, वह परिवर्तित होगा ही। समय के भीतर सनातन की कोई घटना प्रवेश नहीं करती। शाश्वत की कोई किरण समय के भीतर नहीं आती। ऐसा ही समझें कि जैसे जो नदी में होगा वह गीला होगा ही। हां, जिसे गीला नहीं होना, उसे तट पर होना पड़ेगा। समय की धारा में जो होगा वह परिवर्तित होगा ही। समय के बाहर होना पड़ेगा, तो अपरिवर्तित नित्य का जगत प्रारंभ होता लाओत्से कहता है, जो नाम सुमिरण किया जा सके...। सुमिरण तो समय में होगा। शब्द का उच्चारण तो समय लेगा। एक पूरा शब्द भी हम एक क्षण में नहीं बोल पाते। एक हिस्सा बोल पाते हैं, फिर दूसरा दूसरा, तीसरा तीसरा। जब मैं बोलता हं समय, तब भी समय बह रहा है-स बोलता हं और हिस्से में, म बोलता हं और हिस्से में, य बोलता हूं और हिस्से में। हेराक्लतु ने कहा है, यू कैन नॉट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम रिवर-एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते हो। क्योंकि जब दुबारा उतरने आओगे तब तक नदी तो बह गई होगी। हेराक्लतु भी बहुत कंजूसी से कह रहा है। सच तो यह है, वन कैन नॉट स्टेप ईवन वंस इन दि सेम रिवर। क्योंकि जब मेरे पैर का तलवा पानी की ऊपर की धार को छूता है, नदी भागी जा रही है। और जब मेरा तलवा थोड़ा सा प्रवेश करता है, तब नदी भागी जा रही है। जब मैं नदी को स्पर्श करता हूं, तब नदी में पानी और था; और जब मैं नदी की तलहटी में पहुंचता हूं, तब पानी और है। एक बार भी नहीं छू सकता। और नदी तो ठीक ही है। जब नदी को मैं छू रहा हूं, तो नदी ही बदल रही होती तो भी ठीक था। जो पैर छू रहा है, वह भी उतनी ही तेजी से बदला जा रहा है। नहीं, नदी में दुबारा उतरना तो असंभव है; एक बार भी उतरना असंभव है। इसलिए नहीं कि नदी बदल रही इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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