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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
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और या 'सल्लेखना' व्रत धारण करके इस शरीरको धर्मार्थ त्यागनेके लिये तयार हो जाना चाहिये; परंतु मुनिपद कैसे छोड़ा जा सकता है ! जिस मुनिधर्मके लिये मैं अपना सर्वस्व अर्पण कर चुका हूँ, जिस मुनिधर्मको मैं बड़े प्रेमके साथ अब तक पालता आ रहा हूँ
और जो मुनिधर्म मेरे ध्येयका एक मात्र आधार बना हुआ है उसे क्या मैं छोड़ दूँ ? क्या क्षुधाकी वेदनासे घबड़ाकर अथवा उससे बचनेके लिये छोड़ हूँ ? क्या इंद्रियविषयजनित स्वल्प सुखके लिये उसे बलि दे दूं ? यह नहीं हो सकता । क्या क्षुधादि दुःखोंके इस प्रतिकारसे अथवा इंद्रियविषयजनित स्वल्प सुखके अनुभवनसे इस देहकी स्थिति सदा एकसी और सुखरूप बनी रहेगी ! क्या फिर इस देहमें क्षुधादि दुःखोंका उदय नहीं होगा ! क्या मृत्यु नहीं आएगी ! यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर इन क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकार आदिमें गुण ही क्या है ! उनसे इस देह अथवा देहीका उपकार ही क्या बन सकता है ?* मैं दुःखोंसे बचनेके लिये कदापि मुनिधर्मको नहीं छोडूंगा; भले ही यह देह नष्ट हो जाय, मुझे उसकी चिन्ता नहीं है। मेरा आत्मा अमर है, उसे कोई नाश नहीं कर सकता; मैंने दुःखोंका स्वागत करनेके लिये मुनिधर्म धारण किया था, न कि उनसे घबराने और बचनेके लिए; मेरी परीक्षाका यही समय है, मैं मुनिधर्मको नहीं
* क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकारादिविषयक आपका यह भाव 'स्वयंभूस्तोत्र के निम्न पयसे भी प्रकट होता है
'क्षुदादिदुःसप्रतिकारतः स्थितिन चेन्द्रियार्थप्रभवाम्पसौख्यतः । ततो गुणो नास्ति च देहदेहिनोरितीवामियं भगवान् व्यजिजपत् ' ॥