Book Title: Swami Samantbhadra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 243
________________ स्वामी समंतभद्र। प्रश्नपर हुई है और प्रश्नका उत्तर देते हुए बीचमें मंगलाचरणका करना मप्रस्तुत जान पड़ता है; दूसरे वस्तुनिर्देशको भी मंगल माना गया है जिसका उत्तरद्वारा स्वतः विधान हो जाता है और इस लिये ऐसी परिस्थितिमें पृथक् रूपसे मंगलाचरणका किया जाना कुछ संगत मालूम नहीं होता । भूमिकाके वे वाक्य इस प्रकार हैं__“सर्वार्थसिद्धिग्रंथारंभे 'मोक्षमार्गस्यनेतारमिति " श्लोको वर्तते स तु सूत्रकृता भगवदुमास्वातिनैव विरचित इति श्रुतसागराचार्यस्याभिमतमिति तत्प्रणीतश्रुतसागर्याख्यवृत्तितः स्पष्टमवगम्यते । तथापि श्रीमत्पूज्यपादाचार्येणाव्याख्यातत्वादिदं श्लोकनिर्माणं न सूत्रकृतः किंतु सर्वार्थसिद्धिकृत एवेति निर्विवादम् । तथा एतेषां सूत्राणां द्वैपायक प्रश्नोपर्युत्तरत्वेन विरचनं तैरेवाङ्गीक्रियते तथा च उत्तरे वक्तव्ये मध्ये मंगलस्याप्रस्तुतत्वाद्वस्तुनिर्देशस्यापि मंगलत्वेनाङ्गीकृतत्वाचोपरितनः सिद्धान्त एव दायमामोतीत्यूचं सुधीभिः ॥" । __ पं० वंशीधरजी, अष्टसहस्रीके स्वसंपादित संस्करणमें, ग्रंथकर्ताओंका परिचय देते हुए, लिखते हैं कि समन्तभद्रने गंधहस्तिमहाभाष्यकी रचना करते हुए उसकी आदिमें इस पद्यके द्वारा आप्तका स्तवन किया है और फिर उसकी परीक्षाके लिये 'आप्तमीमांसा' ग्रंथकी रचना की है। यथा__ " भगवता समन्तभद्रेण गन्धहस्तिमहाभाष्यनामानं तत्त्वार्थोपरि टीकाग्रन्थं चतुरशीतिसहस्रानुष्टुभ्मानं विरचयत । वदादौ 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादिनैकेन पधेनाप्तः स्तुतः। तत्परीक्षणार्थं च ततोग्रे पंचदशाधिकशतपद्यरातमीमांसाग्रन्थोभ्यधायि ।"

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