Book Title: Swami Samantbhadra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 261
________________ २५२ परिशिष्ट । विक्रमकी पहली शताब्दीके विद्वान् कहा जाता है वह सब ठीक नहीं है। साथ ही यह भी कहना होगा कि वराहमिहिर अथवा कालिदासके समकालीन 'क्षपणक' नामके यदि कोई विद्वान् हुए हैं तो वे इन सिद्धसेन दिवाकरसे भिन्न दूसरे ही विद्वान् हुए हैं। और इसमें तो तब, कोई संदेह ही नहीं हो सकता कि ईसाकी पाँचवीं शताब्दीके विद्वान् श्रीपूज्यपाद आचार्यने अपने 'जैनेन्द्र' व्याकरणके निम्न सूत्रमें, जिन 'सिदसेन'का उल्लेख किया है वे अवश्य ही दूसरे सिद्धसेन थे वेत्तेः सिद्धसेनस्य ॥५-१-७॥ आश्चर्य नहीं जो ये दूसरे सिद्धसेन हों जिनका दिगम्बर ग्रंथोंमें उल्लेख पाया जाता है और जिनका कुछ परिचय पृष्ठ १३८-१३९ पर दिया जा चुका है—दिगम्बर ग्रंथोंमें सिद्धसेनका 'सिद्धसेन दिवाकर' नामसे उल्लेख भी नहीं मिलता; ऐसी हालतमें इस बातकी भी खोज लगानेकी खास जरूरत होगी कि सिद्धसेनके नामसे जितने ग्रंथ इस समय उपलब्ध हैं उनमेंसे कौन ग्रंथ किस सिद्धसेनका बनाया हुआ है। आशा है डाक्टर महोदय अपने हेतुको स्पष्ट करनेकी कृपा करेंगे और दूसरे विद्वान् भी इस जरूरी विषयके अनुसन्धानकी ओर अपना ध्यान देंगे। भुनोलिंगात्साध्यनिश्चायकमनुमानं' इस लक्षणका विधान किया हो और इसमें लिंगका 'साध्याविनाभावी' ऐसा एक रूप देकर धर्मकीर्तिके त्रिरूपका कदर्थन करना ही उन्हें इष्ट रहा हो । कुछ भी हो, इस विषयमें अच्छी जाँचके विना अभी हम निश्चितरूपसे कुछ कहना नहीं चाहते।

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