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स्वामी समन्तभद्र ।
सूत्रके तीसरे अध्यायसे सम्बंध रखता है । इस ग्रंथके प्रारंभमें नीचे लिखा वाक्य मंगलाचरणके तौर पर मौटे अक्षरोंमें दिया हुआ है___ " तत्त्वार्थव्याख्यानषण्णवतिसहस्रगन्धहस्तिमहाभाष्यविधायत( क )देवागमकवीश्वरस्याद्वादविद्याधिपतिसमन्तभद्रान्वयपेनुगोण्डेयलक्ष्मीसेनाचार्यर दिव्यश्रीपादपबंगलिगे नमोस्तु ।"
इस वाक्यमें 'पेनुगोण्डे' के रहनेवाले लक्ष्मीसेनाचार्यके चरण कमलोंको नमस्कार किया गया है और साथ ही यह बतलाया गया है कि वे उन समन्तभद्राचार्यके वंशमें हुए हैं जिन्होंने तत्त्वार्थके व्याख्यान स्वरूप ९६ हजार ग्रंथपरिमाणको लिये हुए गंधहस्ति नामक महाभाष्यकी रचना की है और जो — देवागम'के कवीश्वर तथा स्याद्वादविद्याके अधीश्वर ( अधिपति ) थे।
यहाँ समन्तभद्रके जो तीन विशेषण दिये गये हैं उनमेंसे पहले दो विशेषण प्रायः वे ही हैं जो 'विक्रान्तकौरव' नाटक और 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय के उक्त पद्यमें खासकर उसकी पाठान्तरित शकलमें-पाये जाते हैं । विशेषता सिर्फ इतनी है कि इसमें 'तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यान' की जगह 'तत्त्वार्थव्याख्यान' और 'गंधहस्ति' की जगह 'गंधहस्तिमहाभाष्य' ऐसा स्पष्टोलेख किया है । साथ ही, गंधहस्तिमहाभाष्यका परिमाण भी ९६ हजार दिया है, जो उसके प्रचलित परिमाण ( ८४ हजार ) से १२ हजार अधिक है।
१ लक्ष्मीसेनाचार्यके एक शिष्य मलिषेणदेवकी निषद्याका उल्लेख्न श्रवणबेल्गोलके १६८ ३ शिलालेखमें पाया जाता है और वह शि० लेख ई. स. १४०० के करीबका बतलाया गया है। संभव है कि इन्हीं लक्ष्मीसेनके शिष्यकी निषद्याका वह लेख हो और इससे लक्ष्मीसेन १४ वी शताब्दीके लगभगके विद्वान् हों । लक्ष्मीसेन नामके दो विद्वानोंका और भी पता चला है परंतु वे १६ वीं और १८ वीं शताब्दीके भाचार्य हैं।