Book Title: Suvarnabhumi me Kalakacharya
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 21
________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य (३ और ४) प्रसङ्गों का वृत्तान्त हम पञ्चकल्पभाष्य और चूर्णि के आधार से देख चुके हैं। इन दोनों घटनाओं में आर्य कालक के निमित्तज्ञान का स्पष्ट निर्देश है और इनके अनुयोग-निर्माण का उल्लेख भी है। इनके लोकानुयोग में भी निमित्तशास्त्र था। . घटना (२) में आर्य कालक के निमित्तज्ञान का महत्त्व सूचित है ही। अतः (३) और (४) घटनाओं को भी (२) के साथ ही जोड़ना होगा। यज्ञफलकथनवाली घटना (१) में भी निमित्तज्ञान का महत्व बताया गया है। अतः घटना (१) से (४) एक ही कालंक के जीवन की होनी चाहिये। निगोदव्याख्याता आर्य कालक के विषय में मुनिश्री कल्याणविजयजी लिखते हैं :--"इनको निर्वाण से ३३५ वें वर्ष के अन्त में युगप्रधानपद मिला और ४१ वर्ष तक ये इस पद पर रहें, जैसा कि स्थविरावली की गाथा में कहा है। ४६ परन्तु विचारश्रेणि के परिशिष्ट में एक गाथा है जो इनका वी०नि०३२० में होना प्रतिपादित करती है। पाठकों के विलोकनार्थ वह गाथा नीचे उद्धृत की जाती है सिरिवीरजिणिंदाश्रो, वरिससया तिन्निवीस (३२०) अहियात्रो। कालयसूरी जात्रो, सक्को पडिबोहियो जेण ॥१॥ मालूम होता है कि इस गाथा का श्राशय कालकसूरि के दीक्षा समय को निरूपण करने का होगा।" आगे मुनिजी लिखते हैं-"रत्नसञ्चय में ४ संगृहीत गाथाएं हैं, जिन में वीर निर्वाण से ३३५,४५४,७२०, और ६६३ में कालकाचार्यनामक आचार्यों के होने का निर्देश है। इन में पहले और दूसरे समय में होनेवाले काचार्य क्रमशः निगोद व्याख्याता और गद्देभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य हैं। ४७ इसमें तो कोई सन्देह नहीं है पर ७२० वर्षवाले कालकाचार्य के अस्तित्व के बारे में अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला। दूसरे इस गाथोक्त कालकाचार्य को शक्र-संस्तुत लिखा है जो ठीक नहीं क्योंकि शकसंस्तुत और निगोदव्याख्याता एक ही थे जो पन्नवणाकर्ता और श्यामाचार्य के नाम से प्रसिद्ध थे और उनका समय वीरात् ३३५ से ३७६ तक निश्चित है। इससे इस गाथोक्त समय के कालकाचार्य के विषय में सम्पूर्ण सन्देह है।" ४८ मुनिजी उत्तराध्ययन-नियुक्ति की निम्नलिखित गाथा (नं. १२०) को उद्धृत करते हैं “उजेणि कालखमणा, सागरखमणा सुवन्नभूमीए । इंदो आउयसेसं पुच्छइ सादिव्वकरणं च ॥" उत्तराध्ययन-सूत्र, विभाग १, (दे. ला. पु० नं. ३३, बम्बई १६१६), पृ० १२५-१२७. इस नियुक्ति-गाथा से स्पष्ट है कि नियुक्तिकार के मत से सुवर्णभूमि जानेवाले, सागर के दादागुरु आर्यकालक और निगोद-व्याख्याता शक्र-संस्तुत आर्यकालक एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु मुनिजी को यह मंजूर नहीं है, वे इस नियुक्तिगाथा पर लिखते हैं- "इस गाथा में सागर के ४५. मुनि कल्याणविजय, “वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना (जालोर, वि० सं० १९८१), पृ० ६४, पादनोंध ४६. ४६. गाथा के लिए देखो, वही, पृ० ६१. यहाँ आर्यसहस्ति के बाद गुणसुंदर वर्ष ४४ और उनके बाद निगोदव्याख्याता कालकाचार्य वर्ष ४१, उनके बाद खंदिल (संडिल या सांडिल्य) ३८ वर्ष तक युगप्रधान रहे ऐसा कहा गया है। संडिल के बाद रेवतीमित्र युगप्रधान रहे । ४७. रत्नसचयप्रकरण की गाथायें आगे दी गई हैं। ४८. वीर निर्वाणसंवत् और जैन कालगणना पृ०६४-६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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