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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
१२१ बलमित्र-भानुमित्र कहीं भरोच के और कहीं उज्जयिनी के राजे कहे गए हैं। मुनिश्री कल्याण विजयजी के मत से उसका कारण यही है कि वे पहले भरोच के राजा थे पर शक को हरा कर वे उज्जयिनी या अवन्ति के भी राजा बबे थे। इस विषय में जो हकीकत कथानक श्रादि से उपलब्ध है वह हमें देखनी चाहिये-निशीथचूर्णि में गर्दभिल्लोच्छेदवाली घटना वर्णित है मगर बाद की राज्यव्यवस्था का उल्लेख नहीं है। चतुर्थीकरणवाली घटना भी इसी चूर्णि में है, वहाँ लिखा है-“कालगायरिश्रो विहरंतो उज्जणिं गतो। ...तत्थ य नगरीए बलमित्तो राया।" "दशाचूर्णि में भी चतुर्थीकरण वाली घटना में "उज्जेणीए नगरीए बलमेत्त-भाणुमेत्ता रायाणो" ऐसा कहा है।७२ कहावली में गईभिल्लोच्छेद के बाद की व्यवस्था का निर्देश नहीं है। किन्तु चतुर्थीकरणवाले कथानक में कहावलीकार लिखते हैं-"साहिप्पमुहर चाहि सित्तो उज्जेणीए कालगसूरिभाणेज्जो बलमित्तो नाम राया।"७३ इस तरह बलमित्र के उज्जयिनी के राजा होने के बारे में प्राचीन साक्षी अवश्य है किन्तु कई कथानकों में 'चतुर्थीकरणवाली घटना के वर्णन में बलमित्र को "भरुअच्छ" (भरोंच) में राज्य करता बतलाया है।७४ कालक-परक सभी कथानकों में
सठ्ठी पालगरन्नो पणवन्नसयं तु होइ नन्दाणं। अट्ठसयं मुरियाणं तीसच्चिय पूसमित्तस्स। बलमित्त-भाणुमित्ताण सठि वरिसाणि चत्त नहवहणे। तह गद्दभिल्लरज्जं तेरस वासे सगस्स चऊ॥
(जैन साहित्य संशोधक, खण्ड २ अङ्क ४ परिशिष्ट पृ०२) वास्तव में यहाँ श्राखरी गाथा विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि बलमित्र भानुमित्र के ६० वर्ष, नवाहन (या नभःसेन ) के ४० वर्ष, बाद में गई भिल्ल के १३ वर्ष, और शक के राज्य के ४ वर्ष कहे है गये है और यह निर्विवाद है कि गईभिलोच्छेदक चतुर्थीकारक आर्य कालक बलमित्र के समकालीन थे।
७१. नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, पृ० २, निशीथचूर्णि, दशम उद्देश. ७२. नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, संदर्भ ६, पृ० ५. ७३. वही, प्राकृतकथाविभाग, कथा नं. ३, पृ० ३७.
७४. वही, पृ० १४, देवचन्द्रसूरिविरचितकथा (रचना संवत् ११४६ = ई. स. १०८६ ) में; वही, पृ. ३१, मलधारी श्री हेमचन्द्रविरचित कथा ( रचना वि० सं० १२ शताब्दि ) में; वही, पृ० ४५, अशातसूरिविरचित कथा में, वही, पृ० ७०, अशातसूरिविरचित अन्य कथा में; वही, पृ. ८७ श्री भावदेवसूरिरचित कथा (रचना संवत् १३१२ = ई० स० १२५५ ) में,--इत्यादि कथानकों में बलमित्र को भरुकच्छ का राजा बतलाया है।
किन्तु, जयानन्दसूरि-विरचित प्राकृत कथा (रचना अनुमान से वि० सं० १४१० आसपास ) में बलमित्रभानुमित्र को अवन्ति के राजा और युवराज बताये है। इसी कथानक में गई भिल्लोच्छेद के बाद शक को राजा बनाया इतना ही उल्लेख है। नवाब प्रकाशित, कालकाचार्यकथा, पृ० १०७.
वही, पृ० ५५, श्री धर्मघोषसूरि ( वि० सं० १३००-१३५७ आसपास ) लिखते हैं कि जिस शक राजा के पास आर्य कालक रहे थे उसको कालकाचार्य ने अवन्ति का राजा बनाया और दूसरे शक उस राजा के सेवक बने। किन्तु धर्मघोषसूरि लिखते हैं कि दूसरी परम्परा के अनुसार ये सब सेवक कालक के भागिनेय के सेवक बने
जप्पासे सूरिठिो सऽवंतिपहु आसि सेवगा सेसा। अन्न भणंति गुरुणो भाणिज्जा सेविया तेहिं ।। ४३ ।। जं भणिओ निवपुरओ, स गओ ते हिं सह सूरिणो अ सगो। सगकूल आगयत्ति य, सगुत्ति तो आसि तव्वंसो ॥४४॥
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