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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
कालक विषय के पहले विभाग के (चूर्णिभाग्य श्रादि के ) सर्व सन्दर्भों से हम सिद्ध कर चुके हैं कि सभी घटनायें एक कालक-परक हैं और वह है आर्य श्याम उनके बाद आर्य शाण्डिल्य और शाण्डिल्य के बाद हुए आर्य समुद्र । सभी येरावलियों और पट्टावलियों में इन्ही आर्य समुद्र के अलावा किसी आचार्य के लिए “तिसमुद्दखायकित्तिं दीवसमुद्देसु गहिय पेयालं " जैसे शब्दप्रयोग नहीं हुए। अतः यही श्रार्य समुद्र सुवर्णभूमि जाने वाले सागर अमण हैं और सुवर्णभूमि जानेवाले और गर्दभराजोच्छेदक आर्य कालक एक हैं यह तो मुनिश्री कल्याण विजयजी को स्वीकृत है। अतः वह कालक श्यामार्य ही हैं ।
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प्राचीन जैन परम्परानुसार बीर निर्वाण ई० स० पूर्व ५२७ में माना जाय तब श्यामार्य का समय होगा ई० स० पूर्व १६२ से १५१ और डा० याकोबी आदि पण्डितों के मतानुसार निर्वाण ई० स० पू० ४६७ में मानें, तत्र श्यामार्य का समय होगा ई० स० पूर्व १३२ से ६१ तक। इसी समय में भारत में शकों का प्रथम आगमन हुआ। खरोष्टी लिपि में लिखे हुए लेखों और मथुरा के अन्य कतिपय लेखों के अध्ययन से यह तो सर्व पण्डितों को स्वीकार्य है कि दो तरह के शक सम्वत् चले थे : एक old Saka era = प्राचीन (मूल) शक सं० और दूसरा चालू ( ई० स० ७८ में शुरू हुआ वह) शक सम्वत् । प्राचीन शक सम्वत् के प्रथम वर्ष के बारे में भिन्न भिन्न मत हैं। इन सब की समीक्षा डा० लोहुइझेन-द-ल्यु ने अपने ग्रन्थ 'ध सिथिन पिरिअड़' में की है। डा० लोहुइमेन दस्यु के मत से प्रथम शक सं० ई० स० पू० १२६ में शुरू हुआ, प्रो० रप्सन के खयाल से ई० स० पू० १५० में, प्रो० टार्न के मत से ई० स० पू० १५५ में, डा० जयस्वाल के मत से ई० स०पू० १२० में इस तरह भिन्न भिन्न मत हैं किन्तु डा० लोहुइभेन-द-ल्यु और जयस्वाल के मत वास्तविक हकीकत से ज्यादा नज़दीक हैं। इन सब मतों की चर्चा श्री० एम० एन० सहा ने जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटि (बेन्गाल), लेटर्स, बॉ. ११, (इ०स० १६५२), अङ्क १, १०१ २४ में की है और वहाँ बताया है कि प्रथम शक सम्वत् ई० स० पू० १२३ में हुआ होगा। यह समय शकों और यू-ची की चत्रिया में पार्थिवनों पर के विजय का है। इसके बाद थोड़े ही समय में मिश्रदात दूसरा (Mithradates 11 ) नामक पार्थियन राजा ने शकों को फिर भगाये। यही समय है जब शक भारत की ओर श्राये ।
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इससे हमारे ख़याल में श्यामार्य का समय ई० स० पूर्व १३२ से ई० स० पूर्व ६१ तक मानना ज्यादा उचित है । ई० स० पूर्व ५८ में विक्रम संवत् (मालव सं०) चला उस समय कालकाचार्य जीवित थे ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। अतः कालक के समय का ई० स० पू० ६१ के बाद ही होना आवश्यक नहीं।
कालक ऐतिहासिक व्यक्ति थे, उनका समय ऊपर के दो समय में से एक है, इसी समय गर्दभ का उच्छेद हुआ, इसी समय में कालक सुवर्णभूमि में गये । अन्य कालकाचार्य हुए होंगे " किन्तु वे सत्र कथानकों की घटनाओं के नायक नहीं हैं इतना निश्चित है । अत्र भारतीय इतिहास के पण्डितों से प्रार्थना है कि गर्दभ गईभिल्ल, विक्रमादित्य आदि के कूट प्रश्नों के निराकरण ढूँढने के पुनः प्रयत्न करें।
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१०. देखो, डा० लोइमेन दस्यु डा० एम० एन० सदा आदि के लेख ग्रंथ और डा० सुधाकर चट्टोपाध्याय कृत, घ शकक इन इन्डिया (विश्वभारती, शान्तिनिकेतन, १९५५) १०६. प्रो० राप्सन लिखते है It was in his reign that the struggle between the kings of Parthia and their Scythian subjects in Eastern Iran was brought to a close and the suzerainty of Parthia over ruling powers of Seisthan and Kandahar confirmed (Cambridge Hist. of India, Vol. I. p. 567).
६१. देखो, वीर निर्वाण सम्वत् और जैनकालगणना पृ० १२५ से १० १२० पर पाद में दी हुई देवि क्षमाश्रमण की गुर्वावली, और वाल भी युगप्रधान पट्टावली । वालभी पट्टावली के नं० २७ वाले कालकाचार्य के अन्तिम वर्ष निर्वाण सम्म ६६२ में मलभी में पुस्तकोद्वार हु
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