Book Title: Suvarnabhumi me Kalakacharya
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 38
________________ १२८ श्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ नागहस्ति, रेवति मित्र, सिंह और नागार्जुन के बाद भूतिदिन्न और उनके बाद जिस 'कालक' का उल्लेख है वह कालक गर्द्दभिल्लोच्छेदक हो नहीं सकते क्यों कि द्वितीयोदयुगप्रधान यन्त्र ( पट्टावली समुच्चय, भाग १ पृ० २३-२४) देखने से मालूम होगा कि इस कालक का समय ( श्रार्य वज्र के शिष्य) वज्रसेन से ३६३ वर्ष के बाद होता है जो ईसा की तृतीय शताब्दि के बाद होगा। धर्मसागरगणि की तपागच्छ-पट्टावली ( पहावली - समुच्चय, भाग १, पृ० ४१-७७ ) में श्यामार्य वीरात् ३७६ में स्वर्गवासी हुए और उनके शिष्य जितमर्यादाकृत् सांडिल्य थे ऐसा लिखा है। श्रागे इन्द्रदिन्नसूर के बाद, वीरात् ४५३ वर्ष में गर्द भिल्लो - च्छेदक कालकसूरि का उल्लेख है। इस पट्टावली का रचनाकाल वि० स० १६४६ है । किन्तु यह तो बहुत पीछे की पट्टावली है। दुष्प्रमाकाल श्री श्रमणसङ्घस्तोत्र तो विक्रम की तेरहवीं शताब्दि का है । उस स्तोत्र की वरि का समय निश्चित नहीं है। इस अवचूरि में निम्नलिखित विधान है xxxx मोरि रज्जं १०८ तत्र महागिरि ३० सुहस्ति ४६ गुणसुन्दर ३२, ऊनवर्षाणि १२ ॥ × × × × एवं (वीरनिर्वाणात् वर्षाणि ३२३॥ राजा पुष्यमित्र ३० बलमित्र - भानुमित्र ६० (तत्र ) - गुणसुन्दरस्येव शेष वर्षाणि १२ कालिके ४ (४१) खंदिल ३८ ॥ एवं वर्षाणि ४१३ ॥ राजा नरवाहन ४० गर्दभिल्ल १३ शाक ४ ( तत्र ) — रेवतिमित्र ३६ श्रार्यमधर्माचार्य २० ॥ एवं वर्षाणि ४७० ॥ अत्रान्तरे - बहुल सिरिव्वय स्वामि ( स्वाति) हारित श्यामाऽऽर्य शाण्डिल्य आर्य आर्यसमुद्रादयो भविष्यन्ति । तह गद्द भिल्लरज्जस्स, छेयगो कालगारियो होही । छत्तीसगुण, गुणसयकलियो पहाजुत्तो ॥ १ ॥ वीरनिर्वाणात् ४५३ भरुअच्छे खपुटाचार्याः वृद्धवादी पंचकल्पविच्छेदो जीतकल्पोद्धारः......॥ धर्माचार्यस्येव शेषवर्षाणि २४ भद्रगुप्त ३९ श्रीगुप्त १५ वज्रस्वामी ३६ । एवं सर्वाङ्क ५८४ ॥ गर्छभिल्लवित विक्रमादित्य ६० धर्मादित्य ४० भाइल ११ ॥ एवं ५८१ ॥ ( पट्टावली - समुच्चय, १, पृ० १७ ). इस अवचूरि अन्तर्गत गाथा में यह स्पष्ट नहीं है कि वीरात् ४५३ में (गर्छ भिलोच्छेदक) द्वितीय कालक हुए। किन्तु विचारश्रेणि की गणना से मिलती इस (अवचूरि की) नृपकालगणना से गद्देभिल्ल का समय वीरात् ४५३ होता है। मगर नृपकालगणना शङ्का से पर नहीं है, विक्रमादित्य को गर्छ भिल्ल का पुत्र कहने के लिए कोई कालककथानक का या चूर्णि या भाष्य का प्रमाण उपलब्ध नहीं। और ४५३ में गर्द्दभिलोच्छेद करने वाले कालक के समय बलमित्र - भानुमित्र हो नहीं सकते। फिर बलमित्र - भानुमित्र के बाद गर्छभिल्ल के १३ वर्ष गिनना और गद्देभिल्लों के १०० या १५२ वर्ष का मेल प्राप्त करने के लिए विक्रमादित्य, धर्मादित्य, भाईल और नाइल को गर्छ भिल्लवंश के मानना ये सब बातें अभी शङ्कायुक्त ही हैं। खुद मेरुतुङ्ग को भी दो बलमित्र-भानुमित्र होने का विचित्र अनुमान खींचना पड़ा । श्रार्य खपुट का कार्यप्रदेश भरोच था, कालकाचार्य का भी भृगुकच्छ से सम्बन्ध है। मगर दोनों समकालीन थे ( वीरात् ४५३ ) ऐसा जैन ८८. मेरुतुङ्ग लिखते हैं— “ बलमित्रभानुमित्रो राजानौ ६० वर्षाणि राज्यमकार्थम् । यो तु कल्पचूर्णौ चतुर्थीपर्वकर्तृकालकाचार्यनिर्वासको उज्जयिन्यां बलमित्रभानुमित्री तावन्यावेव ।" इस विषय में मुनिश्री कल्याणविजयजी के विवेचन के लिए देखो, वीरनिर्वाण संवत्०, पृ० ५६-५७ और पादनोंध, जिसमें तित्थोगाली पइन्नय के नाम से कैसी गाथायें पीछे के ग्रन्थों में घुस गई हैं इसका मुनिजी ने अच्छा विवेचन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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