Book Title: Suvarnabhumi me Kalakacharya
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ भी इस विभाग से ज्यादा सम्बन्ध रखनेवाले हैं। मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि इत्यादि दूसरे विभाग में हैं क्यों कि उन ग्रन्थकारों के लिए परम्परा ज्यादा विच्छिन्न रूप में थीं। हम देखते हैं कि ज्यों ज्यों प्राचीन श्राचार्यों के साथ उत्तरकालीन ग्रन्थकारों का अधिक व्यवधान होता जाता है त्यों त्यों प्राचीन परम्परा की बातों का अधिक लोप होता जाता है। और पट्टावली जितनी अर्वाचीन उतनी ही अधिक अविश्वसनीय होती है। रत्नसञ्चयप्रकरण (विक्रम की १५-१६ शताब्दी) में चार कालकाचार्यों का समय निर्दिष्ट है। जब उनसे प्राचीन ग्रन्थकार तीन कालकाचार्यों का समय देते हैं। मेरुतुंग के सामने भी विच्छिन्न परम्परा थी और बहुत विरोधाभासवाली बातें भी इनकी लिखी हुई विचारश्रेणि में देखने मिलती है। मनि कल्याणविजयजी ने अपने “वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना" के पृ. ५५-५७. पादनोंध ४७ में यह स्पष्ट रूप से बताया है। ऐसी परिस्थिति में हमें प्रथम विभाग के ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के आधार से ही छानबिन करके अनुमान करना ठीक होगा। आर्य कालक के जीवन की घटनायें मुख्यतः सात हैं। दूसरे दूसरे संदों में और कथानकों में ये सात घटनायें मिलती हैं, जैसा कि मुनि कल्याणविजय ने भी बताया है। वे घटनायें निम्नलिखित हैं (१) दत्त राजा के सामने यज्ञफल और दत्त मृत्यु-विषयक भविष्य-कथन (निमित्त कथन)। (२) इन्द्र के सामने निगोद-व्याख्यान शक्र-संस्तुत निगोद-व्याख्याता आर्य कालक। (३) श्राजीविकों से निमित्त पठन और तदनन्तर सातवाहन राजा के तीन प्रश्नों का निमित्त-ज्ञान से उत्तर देना। (४) अनुयोगग्रन्थ-निर्माण । (५) गर्दभ-राजा का उच्छेदन । (६) प्रतिष्ठानपुर जा कर वहाँ सातवाहन की विज्ञप्ति से पर्दूषणा पर्वतिथि जो पच्चमी थी उसके बजाय चतुर्थी करना। (७) अविनीतशिष्य-परिहार और सुवर्णभूमि-गमन । (१) तुरुविणी (या तुरुमिणी) नगरी के राजा जितशत्रु को प्रपञ्च से हठाकर कालक के भागिनेय दत्त ने राज्य लिया और बहुत यज्ञ किये। गर्व से दत्त ने कालकाचार्य को इन यज्ञों का फल पूछा। जब कालक ने कहा कि सात दिन में दत्त बूरी तरह मरेगा तब कालकाचार्य को कैद किया गया मगर ठीक वैसे ही बूरे हाल दत्त मारा गया जैसा कि कालक का कथन था। सत्य-कथन, सम्यक्-कथन के दृष्टान्त में यह कथा दी गई है। (२) इस घटना में चमत्कार का तत्त्व ज्यादा होने से इसका ऐतिहासिक अंश पकड़ना मुश्किल है। कथा ऐसी है कि एक समय इन्द्र ने पूर्वविदेहक्षेत्र में विहरमान तीर्थङ्कर सीमन्धरस्वामी से निगोद-जीवों के विषय में सूक्ष्म निरूपण सुना। फिर इन्द्र ने पूछा तब उत्तर मिला कि उस समय भारत में ऐसा सूक्ष्म निरूपण करनेवाले सिर्फ कालकाचार्य थे। कुतूहल से इन्द्र ब्राह्मण के रूप में आर्य कालक के पास गया और पृच्छा करके निगोद-व्याख्यान इनसे सुना। बाद में इन्द्र ने अपना शेष आयुष्य कितना रहा है ऐसी जब पृच्छा की तब प्राचार्य ने अपने ज्ञान से देखा कि दो सागरोपम अायुष्य अभी उस ब्राह्मण के लिए शेष था जो इन्द्र का ही हो सकता है। अतः श्राचार्य ने कहा-“श्राप तो इन्द्र हैं।" प्रसन्न हो कर इन्द्र चला गया। कथा के चमत्कारिक तत्त्व को छोड़ दें तो इस में से दो बातें फलित होती हैं वह याद रखना चाहिये-एक है कालकाचार्य का निगोद-जीवों के बारे में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान और दूसरा है उनका ज्योतिषज्ञान-निमित्तज्ञान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50