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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
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इसी ढंग से अन्वेषण करने का और इस प्रश्न का निराकरण करने का प्रयत्न मुनि कल्याणविजयजी ने भी किया। मुनि जी के खयाल से दो कालकाचार्य हुए। मगर जिस तर्क से वे दूसरे कालक के साथ भिन्न घटनाओं को जोड़ते हैं इसी तर्कपद्धति से वास्तव में एक ही कालक के साथ सब घटनाओं का सम्बन्ध सिद्ध होता है, उस कालक का समय कुछ भी हो ।
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एक से ज्यादा कालकाचार्य की समस्या की उपस्थिति बाद के ग्रन्थकारों के कारण और कालगणनाओं में होनेवाली गड़बड़ के कारण, खड़ी हुई है। मुनिजी के तर्क को और निर्णय को सविस्तर देखने के पहले हम यहाँ यह बतलाना चाहते हैं कि हमारा उक्त अनुमान मुनिजी की तर्कपद्धति से ही किया गया है। आप लिखते हैं- “ गर्द्दभिल्लोच्छेदवाली घटना में यह लिखा है कि ये कालक ज्योतिष और निमित्तशास्त्र के प्रखर विद्वान् थे। उधर पाँचवीं घटना कालक के निमित्तशास्त्राध्ययन का ही प्रतिपादन करती है। इससे यह बात निर्विवाद है कि इन दोनों घटनाओं का सम्बन्ध एक ही कालकाचार्य से | १५० जब इसी तर्क से सब घटनायें एक ही कालक के जीवन की घटित होती हैं, तब कुछ घटनायें पहिले कालकपरक और अन्य सब दूसरे कालकपरक मानना ऐसा मुनि जी का अनुमान युक्तिसङ्गत नहीं है ।
सत्र घटनायें एक ही कालक के जीवन की हैं ऐसे निर्णय को दूसरी दृष्टि से भी पुष्टि मिलती है । हमने पहले बताया है उस तरह पहिले विभाग के संदर्भों (निर्युक्ति, चूर्णि, भाष्य, कहावली इत्यादि) को देखें तो कोई भी ग्रन्थकार दो कालक की हस्ती दिखलाते ही नहीं । उन सब संदर्भों की छानबीन करनी चाहिये। हरेक ग्रन्थकार भिन्न भिन्न विषय की चर्चा में, कालक के जीवन की एक या दो या तीन घटनायें देते हैं और हरेक ग्रन्थकार के मत से ये घटनायें एक ही कालक की हैं क्योंकि उन्होंने विरोधात्मक सूचन दिया ही नहीं और न इनको ऐसी शङ्का उत्पन्न हो सकती थी । अत्र देखें कि प्राचीन ग्रन्थ में कौनसी घटना है
१. दशाचूर्णि - इसमें घटना नं. ६ – चतुर्थीकरण — मिलती है ।
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२. वृहत्कल्पभाष्य और चूर्णि — घटना नं० ७ और घटना नं० ५ – गर्छ भिल्लोच्छेद। इस के अलावा यवराजा, गर्दभ - युवराज और डोलिया वाला कथानक गर्दभ का गर्दभराजोच्छेद से सम्बन्ध है मगर उस वृत्तान्त में कालक का प्रसङ्ग नहीं है ) । यह यवराज और गर्दभ वाला वृत्तान्त हमने यहाँ परिशिष्ट में दिया है, गर्छभिल्लों के विषय में आगे के संशोधन में पण्डितों की सुविधा के खयाल से ।
३. पञ्चकल्पभाष्य और चूर्णि - घटना नं० ३- निमित्तपठन, और घटना नं० ४ – अनुयोगग्रन्थादि निर्माण.
४. उत्तराध्ययन निर्युक्ति और चूर्णि - घटना नं० ७ - श्रविनीत शिष्य परिहार, सुवर्णभूमिगमन; और घटना नं० २ -- निगोद व्याख्यान.
५. निशीथचूर्णि घटना नं० ५ – गर्छ भिल्लोच्छेद और घटना नं० ६ - चतुर्थीकरण.
६. व्यवहार - चूर्णि - श्रार्य कालक उज्जैन में शकों को लाये ऐसा उल्लेख है अतः वह घटना नं० ५ से सम्बन्ध रखती है।
७. श्रावश्यक चूर्णि — घटना नं० १ - दत्त के सामने यज्ञफलकथन.
५०. देखिये, मुनि कल्याणविजय, आर्य कालक, द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, ( नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, सं० १६६० ) पृ० ११५.
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