________________
११४
प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ ८. कहावली-घटना नं०५-गईभोच्छेद; घटना नं०६-चतुर्थीकरण; घटना नं०७-अविनीत शिष्यपरिहार, सुवर्णभूमिगमन; घटना नं० १-कालक और दत्तराजा.
अब जब पञ्चकल्पभाष्य के अनुसार नं० ३ और ४ वाले कालक एक हैं, उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार नं०७ और नं० २ वाले एक हैं, और जब नं०७ वाली घटना का नं. ३ और नं० ४ के अनुयोगग्रन्थों से सम्बन्ध है तब नं० ३, ४, ७, और २-ये सब घटनाएँ एककालकपरक होती हैं। निशीथचूर्णि अनुसार नं०५ और नं०६ वाले आर्य कालक एक हैं। और बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार नं०५ और नं०७ वाले एक हैं, अतः नं०५, ६ और नं० ७ वाले कालक तो एक हैं ही। उत्तराध्ययन नियुक्ति और चूर्ण के मत से नं०७ और नं० २ वाले एक हैं । अतः नं० ५, ६, ७, २ वाले एक ही कालक हैं। फिर नं. ३
और ४ वाले नं० ७ वाले कालक हैं वह तो स्पष्ट है। ५. मुनिश्री कल्याणविजयजी को यह मंजूर है। और कहावली के अनुसार, नं० ५, नं०६, नं० ७ और नं० १ वाले कालक एक हैं। अतः इस विभाग के ग्रन्थों के समीक्षण से इन ग्रन्थकारों के खयाल में घटना नं० १ से घटना नं. ७ वाली सब घटना वाले कालकाचार्य एक ही होंगे।
वह कालक कब हुए। मुनिश्री कल्याणविजयजी के मत से दो कालकाचार्य हुए-पहले निर्वाण संवत् ३०० से ३७६ तक में, इन का जन्म नि० सं० २८० में, दीक्षा नि० सं० ३०० में, युगप्रधानपद नि० सं० ३३५ में और स्वर्गवास नि० सं० ३७६ में। उनके जीवन की दो घटनाएँ : घटना नं० १यज्ञफलकथन, और घटना नं० २-निगोदव्याख्यान । १२ ___मुनिजी के मत से, दूसरे कालक के जीवन में घटना ३ से ७ हुई। और वे घटनायें इस क्रमसे हुई :–घटना ३ (निमित्त-पठन), वीर निर्वाण संवत् ४५३ से पहले; घटना ४ (अनुयोग-निर्माण), नि० सं० ४५३ से पहले; घटना ५ (गईभिल्लोच्छेद), नि० सं० ४५३ में; घटना ६ (चतुर्थी पर्युषणा),
० सं० ४५१ से ४६५ के बीच में; घटना १ (अविनीत-शिष्य-परिहार), नि० सं० ४५१ के बाद और ४६५ के पहले ।
श्राप लिखते हैं-" जहाँ तक हम जान सके हैं, उपर्युक्त सात घटनाओं के साथ दो ही व्यक्तियों का
व है-प्रज्ञापनाकर्ता श्यामार्य और सरस्वती-भ्राता आर्य कालक। निगोद-पृच्छा सम्बन्धक घटना, जो कालक-कथाओं में चौथी घटना कही गई है, हमारी समझ में आर्य रक्षित के चरित्र का अनुकरण है। परन्तु इस विषय में निश्चित मत देना दुस्साहस होगा क्यों कि 'उत्तराध्ययन-नियुक्ति में एक गाथा हमें उपलब्ध होती है, जिसका श्राशय यह है--"उज्जयिनी में कालक क्षमाश्रमण थे और सुवर्णभूमि में सागर श्रमण । (कालक सुवर्णभूमि गये, और इन्द्र ने श्रा कर) शेष आयुष्य के विषय में पूछा। (तब कालक ने कहा) आप इन्द्र हैं। xxx इस वर्णन से यह तो मानना पड़ेगा कि कालक के पास इन्द्रागमन-विषयक बात
५१. अविनीतशिष्य-परिहार (और सुवर्णभूमिगमन) वाली घटना और निमित्त पठन और अनुयोगनिर्माणवाली घटना को छानबीन कर के मुनिश्री लिखते हैं-" इन दोनों घटनाओं का आन्तरिक रहस्य एक ही है और वह यह कि कालक के शिष्य उनके काबू में न थे।" इस नयाल को ले कर मुनिजी ने भी बताया है कि ये घटनायें एक ही कालक के जीवन की हैं। द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ११५.
५२. वही, पृ० ११६-११७. ५३. वही, पृ० ११६-११७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org